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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 302 व्यक्तिजात्याश्रितत्वेन बहोर्बहुविधस्य च / भेदः परस्परं तद्वद्बोध्यस्तदितरस्य च // 5 // व्यक्ति विशेषौ बहुत्वतदितरत्वधर्मों जातिविषयौ तु बहुविधत्वतदितरत्वधर्माविति बहुबहुविधयोस्तदितरयोश्च भेद: सिद्धः / एवं बढेकविधयोरभेद इत्यपास्तं बहूनामप्यनेकानामेकप्रकारत्वं ह्येकविधं न पुनर्बहुत्वमेवेत्युदाहृतं द्रष्टव्यम्॥ क्षिप्रस्याचिरकालस्याध्रुवस्य चलितात्मनः। स्वभावैक्यं न मंतव्यं तथा तदितरस्य च // 6 // ____ अचिरकालत्वं ह्याशुप्रतिपत्तिविषयत्वं चलितत्वं पुनरनियतप्रतिपत्तिगोचरत्वमिति स्वभावभेदात् / क्षिप्राध्रुवयो क्यमवसेयं। तथा तदितरयोरक्षिप्रध्रुवयोस्तत एव॥ व्यक्ति के आश्रितपना होने से तथा बहुविध को जाति के आश्रित होने से उनमें परस्पर भेद है। उसी के समान यानी एक और एकविध का व्यक्ति और जाति के आश्रित होने से परस्पर में भेद समझना चाहिए॥५॥ .. बहुत्व और उससे भिन्न अल्पत्व धर्म तो पृथक्-पृथक् विशेष व्यक्तिरूप है तथा बहुविध और उससे भिन्न अल्पविध धर्म अनेक में प्रवर्तने वाले होने से जाति विशेष हैं। इस प्रकार बहु और बहुविध तथा उनसे इतर अल्प और अल्पविध में परस्पर भेद सिद्ध है। भावार्थ : भेद, प्रभेद सहित अनेक प्रकार के कई जाति के जीवों का जो ग्रहण है, वह बहुविध का ग्रहण है। एक प्रकार के अनेक जीवों का ग्रहण एकविध का अवग्रह है। एक दो जीवों का ज्ञान अबहु का अवग्रह है। कई घोड़े, अनेक बैल, कतिपयमहिष आदि का समूहालम्बनज्ञान भी बहुविध का अवग्रह समझना चाहिए। इस कथन से बहुत और एकविध का अभेद है। यह शंका भी दूर कर दी गयी है, क्योंकि भिन्नभिन्न जाति के एक-एक पदार्थ को एकत्रित कर बहुतपना हो सकता है, किन्तु एकविधपना तो एक जाति के अनेक पदार्थों का ही होगा। अत: बहुत भी एक जाति के अनेक का एकप्रकारपना एकविध कहा जाता है। किन्तु वहाँ फिर बहुतपने का व्यवहार नहीं करना चाहिए। इस प्रकार उदाहरण दिया जा चुका है। ____शीघ्र काल के क्षिप्र और चलितस्वरूप अध्रुव के स्वभाव में भी एकपना नहीं मानना चाहिए तथा उनसे इतर अक्षिप्र और ध्रुव का भी स्वभाव एक नहीं है॥६॥ क्षिप्र (अचिर कालपना) तो शीघ्र ही प्रतिपत्ति का विषय है और अध्रुव (चलितपना) फिर अस्थिर पदार्थ की प्रतिपत्ति का विषय है। इस प्रकार स्वभाव के भेद होने से क्षिप्र और अध्रुव में एकपना नहीं समझना चाहिए। अर्थात् क्षिप्र ही अध्रुव नहीं है तथा उनसे विपरीत अक्षिप्र और ध्रुव का भी देर से प्रतीति कराना और स्थिर प्रतिपत्ति कराना, इन स्वभाव भेदों के होने से उनमें भी एकपना नहीं है। सम्पूर्ण पुद्गलों का प्रकटरूप बाहर निकल जाना नि:सत है, और थोड़े से कतिपय पुद्गलोंके निकलने से हुआ ज्ञान अनिसृत है। अभिप्रायों से जान लिया गया ज्ञान अनुक्त है। जबकि पूर्णरूप से निकाला गया पदार्थ निसृत है और पूर्णरूप से कह दिया गया पदार्थ उक्त माना गया है। इस प्रकार उनके भेद का निर्णय हो जाने से उनमें एकपने का कुचोद्य उठाना युक्त नहीं है। भावार्थ : अन्य के उपदेशपूर्वक जो शब्दजन्य वाच्य का ग्रहण है, वह उक्त है और स्वत: जो ग्रहण
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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