________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 305 विजानाति न विज्ञानं बहून् बहुविधानपि। पदार्थानिति केषांचिन्मतं प्रत्यक्षबाधितम् // 14 // प्रत्यक्षाणि बहून्येव तेष्वज्ञातानि चेत्कथम् / तद्वद्बोधैकनिर्मासैः शनैश्चेनाप्रबाधनात् // 15 // तद्बोधबहुतावित्तिर्बाधिकात्रेतिचेन्मतं। सा योकेन बोधेन तदर्थेष्वनुमन्यताम् // 16 // बहुभिर्वेदनैरन्यज्ञानवेद्यैस्तु सा यदि। तदवस्था तदा प्रश्नोनवस्था च महीयसी॥१७॥ समाधान : ज्ञानावरण और वीर्यांतराय कर्मों के विशेष क्षयोपशम के प्रकर्ष होने से उत्पन्न हुई, उक्त पूज्यज्ञानों की विशुद्धि का प्रकर्ष वास्तविकरूप से पूजनीय है। अर्थात्-विशुद्धि ही परमपूज्य है। उसकी आत्मीय विशुद्धि उसके कारण विशिष्ट क्षयोपशम है। यहाँ कार्य के स्वकीय धर्म का कारण में आरोप है और क्षयोपशम की प्रकर्षता से ज्ञान में पूज्यता का संकल्प है। यहाँ कारण का धर्म कार्य में आरोपित किया है तथा ज्ञान में पूज्यता आ जाने से उसके द्वारा जानने योग्य ज्ञेय पदार्थों में भी पूज्यपने का अध्यारोप है। प्रतिपादक के ज्ञान का कार्य होने से और प्रतिपाद्य श्रोता के ज्ञान का कारण होने से शब्द भी अपने कारण और कार्यों से पूज्यत्व को प्राप्त होता है अतः सूत्र में कहे गये पदों के क्रम से निर्देश करने का कारण वही निश्चित किया जाता है। अन्य कोई कारण प्रतीत नहीं हो रहा है। ____एक ही ज्ञान बहुत से और बहुत प्रकार के पदार्थों को कैसे भी नहीं जान सकता है-“प्रत्यर्थं ज्ञानाभिनिवेशः" / प्रत्येक अर्थ को जानने के लिए एक-एक ज्ञान नियत है। इस प्रकार किन्हीं विद्वानों का मत है, वह प्रत्यक्ष से ही बाधित है। अर्थात्-एक चाक्षुष प्रत्यक्ष ही सामने आये हुए अनेक वृक्षों, मनुष्यों, धान्यों, पशुओं आदि को जान लेता है। जातिरूप से प्रमेयों को जानने वाले ज्ञान अनेक प्रकार के अर्थों को जान रहे हैं, अतः प्रत्येक ज्ञान का विषय एक नियत पदार्थ मानना या प्रत्येक विषय का एक नियत ज्ञान मानना प्रत्यक्ष विरुद्ध है।॥१४॥ / यदि बौद्ध कहें कि अतिशीघ्रता से झट पीछे-पीछे प्रवृत्ति होने के कारण अथवा युगपत् अनेक प्रत्यक्ष उत्पन्न हो जाने के कारण अथवा युगपत् प्रत्यक्ष उत्पन्न हो जाने के कारण वे अनेक प्रत्यक्ष ज्ञात नहीं हो सकते हैं। उनके प्रत्युत्तर में जैनाचार्य कहते हैं कि उन अज्ञात अनेक प्रत्यक्षों की सत्ता कैसे जानी जायेगी? उन अनेक ज्ञानों को जानने के लिए यदि एक-एक को प्रकाशने वाले अनेक ज्ञान माने जायेंगे, तब तो सैकड़ों प्रकाशक ज्ञानों के द्वारा उनका प्रतिभास होना मानना पड़ेगा। यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि उन ज्ञानों का भी निर्बाध से निर्णय नहीं होता है॥१५॥ अर्थात्-अनेक पदार्थों को जानने वाला एक ज्ञान निर्बाध सिद्ध . उन अनेक ज्ञानों के बहुतपने का ज्ञान बाधक है। इस प्रकार बौद्ध का मन्तव्य होने पर जैनाचार्य कहते हैं कि अनेक ज्ञानों के बहुतपने का वह ज्ञान यदि एक ही ज्ञान के द्वारा होता है तो उसी अनेक ज्ञानों को जानने वाले एक ज्ञान समान अनेक अर्थों में भी एक ज्ञान द्वारा ज्ञप्ति होना मान लेनी चाहिए। यदि अन्य तीसरे प्रकार के अनेक ज्ञानों से जानने योग्य दूसरे प्रकार के बहुत ज्ञानोंके द्वारा बहुतों को जानने वाले पहले अनेक ज्ञानों का वह प्रतिभास माना जायेगा, तब तो तीसरे प्रकार के ज्ञानों को जानने के लिए चौथे प्रकार , के ज्ञान के लिए अन्य ज्ञान की आवश्यकता होगी। तथा उसका पाँचवाँ ज्ञान, इस प्रकार प्रश्न वैसा का वैसा