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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 292 सहभावोपि गोदृष्टितुरंगमविकल्पयोः। किन्नैकत्वं व्यवस्यंति स्वेष्टदृष्टिविकल्पवत् // 39 // .. प्रत्यासत्तिविशेषस्याभावाच्चेत्सोत्र कोपरः। तादात्म्यादेकसामग्यधीनत्वस्याविशेषतः॥४०॥ तादृशी वासना काचिदेकत्वव्यवसायकृत् / सहभावाविशेषेपि कयोश्चिद् दृग्विकल्पयोः // 41 // साभीष्टा योग्यतास्माकं क्षयोपशमलक्षणा। स्पष्टत्वेक्षविकल्पस्य हेतुर्नान्यस्य जातुचित् // 42 // तन्निर्णयात्मकः सिद्धोवग्रहो वस्तुगोचरः। स्पष्टाभोक्षबलोद्भूतोऽस्पष्टो व्यंजनगोचरः // 43 // स्पष्टाक्षावग्रहज्ञानावरणक्षयोपशमयोग्यता हि स्पष्टाक्षावग्रहस्य हेतुरस्पष्टाक्षावग्रहज्ञानावरणक्षयोपशमलक्षणा पुनरस्पष्टाक्षावग्रहस्येति तत एवोभयोरप्यवग्रहः सिद्धः परोपगमस्य वासनादेस्तद्धेतुत्वासंभवात्। संप्रतीहां विचारयितुमुपक्रम्यते। किमनिंद्रियजैवाहोस्विदक्षजैवोभयजैव वेति। तत्र तब तो जैन कहते हैं कि वह विशेष प्रत्यासत्ति तादात्म्यसम्बन्ध के अन्य और क्या हो सकती है? एक ही तादात्म्य सम्बन्ध सामग्री के अधीनपनारूप सम्बन्ध दोनों यानी नीलदर्शन नीलविकल्प और गोदर्शन अश्वविकल्प में विशेषतारहित होकर विद्यमान है अत: एक सामग्री के वश रहना तो नियामक नहीं हो सका। हाँ, तादात्म्य सम्बन्ध से सब निर्वाह हो जाता है॥३९-४०॥ ___ सह भाव की अविशेषता होने पर भी किन्हीं-किन्हीं विशेष दर्शन विकल्पों में ही एकत्व के अध्यवसाय को कराने वाली वैसी ही वासना है, किन्तु गोदर्शन, अश्वविकल्प आदि सभी दर्शन विकल्पों में सहभाव के समानरूप होने पर भी एकपने का निर्णय नहीं कराती है। जैनाचार्य कहते हैं कि हमारे यहाँ भी इसको क्षयोपशमस्वरूप योग्यता मानी है, इन्द्रियजन्य विकल्पज्ञानों के स्पष्टपन में वह स्पष्ट ज्ञानावरण क्षयोपशम योग्यता ही कारण है, अन्य अनुमान आगमज्ञान या भ्रान्तज्ञानों के कभी भी स्पष्टता नहीं करा सकती है॥४१-४२॥ _अत: सिद्ध हुआ कि सामान्य, विशेषात्मक वस्तु को विषय करने वाला निश्चयात्मक अवग्रह ज्ञान है, इन्द्रियों की सामर्थ्य से उत्पन्न हुआ द्रव्यस्वरूप व्यक्त अर्थ को प्रकाशित करने वाला अर्थावग्रह स्पष्ट है और अव्यक्त शब्द, रस, गन्ध, स्पर्श, स्वरूप व्यंजन को जानने वाला व्यंजन अवग्रह अस्पष्ट है। अर्थात् स्पष्टता और अस्पष्टता का सम्बन्ध विषय से नहीं है। किन्तु विषय ज्ञान के कारण ज्ञानावरण क्षयोपशम विशेष से है॥४३॥ स्पष्ट इन्द्रियजन्य अवग्रहज्ञान का आवरण करने वाले कर्मों के क्षयोपशमरूप योग्यता नियम से इन्द्रियजन्य स्पष्ट अवग्रह का कारण है और अस्पष्ट इन्द्रिय अवग्रहज्ञान के आवरण कर्मों के क्षयोपशम स्वरूप योग्यता ही अस्पष्ट इन्द्रिय अवग्रह का हेतु है। इस प्रकार अर्थ और व्यंजन दोनों का भी अवग्रह सिद्ध हो जाता है। दूसरे बौद्ध, अद्वैतवादी आदि विद्वानों द्वारा मानी गयी वासना, युगपत् वृत्ति, इन्द्रिय, अविद्या आदि को स्पष्टपन या अस्पष्टपन के लिए इन्द्रियजन्य अवग्रह के मतिज्ञान की हेतुता की असम्भवता है। अवग्रह का कथन पूर्ण हो गया।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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