________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 291 मनसोर्युगपदवृत्तिः सविकल्पाविकल्पयोः। मोहादैक्यं व्यवस्यंतीत्यसत्पृथगपीक्षणात् // 36 // लैंगिकादिविकल्पस्यास्पष्टात्मत्त्वोपलंभनात् / युक्ता नाक्षविकल्पानामस्पष्टात्मकतोदिता // 37 // अन्यथा तैमिरस्याक्षज्ञानस्य भ्रांततेक्षणात् / सर्वाक्षसंविदो भ्रांत्या किन्नोाते विकल्पकैः // 38 // को निर्विकल्पक कहना दूषण है। अर्थात् वह संवित्ति निर्विकल्प नहीं है, क्योंकि निश्चयात्मक सहित इन्द्रियजन्य ज्ञानों का स्वयं अनुभव हो रहा है। निर्विकल्पक ज्ञान से स्वार्थों की संवित्ति नहीं हो पाती है॥३५॥ बौद्धों के यहाँ ज्ञान परिणति दो प्रकार की मानी है। एक तो एक ही ज्ञानधारा में क्रम से शीघ्रशीघ्र निर्विकल्पकज्ञान और सविकल्पक ज्ञान का उत्पन्न होना, दूसरा दो ज्ञानधाराओं की साथ-साथ प्रवृत्ति होना। अतः मनरूप दो ज्ञानों की युगपत् प्रवृत्ति होने के कारण व्यवहारी जन मोह से सविकल्पक और निर्विकल्पक ज्ञानों की एकता का निर्णय कर लेते हैं। अथवा दो ज्ञानधाराओं में सदा रहने वाली सविकल्पक और निर्विकल्पक ज्ञानों की प्रवृत्तियाँ ही मोह से दोनों के ऐक्य का निश्चय करा देती हैं। अत: व्यवहारी पुरुष सविकल्पक के व्यवसाय धर्म का निर्विकल्पक ज्ञान में अध्यारोप कर लेता है और निर्विकल्पक के स्पष्टत्व धर्म का सविकल्पक मिथ्याज्ञान में अध्यवसाय कर लेता है। इस प्रकार बौद्धों का कहना प्रशंसनीय नहीं है, क्योंकि पृथक्-पृथक् भी स्वार्थव्यवसाय होता देखा जाता है। अर्थात् किसी पदार्थ में प्रकृत धर्म की बाधा उपस्थित होने पर फिर कदाचित् उस धर्म के दीख जाने से वहाँ उसका आरोप कर लिया जाता है, जैसे जपाकुसुम के सन्निधान से स्फटिक में रक्तिमा का आरोप किया जाता है, किन्तु सर्वदा सम्यग्ज्ञान के द्वारा स्वार्थ व्यवसाय का जब सम्वेदन हो रहा है, तो ऐसी दशा में अध्यारोप करने का अवकाश नहीं रहता है॥३६॥ .. लिंगजन्य अनुमान ज्ञान या श्रुतज्ञान आदि विकल्पज्ञानों का अविशदपना उपलब्ध है अत: इन्द्रियजन्य विकल्पज्ञानों को भी अविशदस्वरूपपना कहना युक्त नहीं है। अर्थात् कुछ ज्ञानों को अस्पष्ट देखकर सभी ज्ञानों को अविशद नहीं कह सकते। अन्यथा (अनुमान के समान प्रत्यक्षज्ञान को भी यदि अस्पष्ट कह दिया जावेगा तो) कामला रोग वाले तैमिरिक पुरुष के चक्षुइन्द्रियजन्य ज्ञान का भ्रान्तपना देखने से निर्दोष आँखों वाले अन्य सम्पूर्ण जीवों के इन्द्रियप्रत्यक्षों को भी भ्रान्तिरूप से तर्कणा क्यों नही कर ली जाती है? क्योंकि, विकल्प करने वाले बौद्ध सदृश भ्रमी जीवों को एक देखकर सबको वैसा कहते हैं // 37-38 // जैन कहते हैं कि इस प्रकार स्व को अभीष्ट नील दर्शन और नील विकल्पों के समान वह सहभाव भी गोदर्शन और अश्वविकल्पों में एकपने का व्यवसाय क्यों नहीं करा देता है? अर्थात् निर्विकल्पकज्ञान धारा में हुए प्रत्यक्ष गोदर्शन में सविकल्पकज्ञानधारा के अविशद अश्वविकल्प का परस्पर धर्म हो जाना चाहिए। यदि बौद्ध कहें कि गोदर्शन और अश्वविकल्प में इष्ट की गयी विशेष प्रत्यासत्ति नहीं है। अत: एक के धर्म का दूसरे में आरोप नहीं होता है, किन्तु नील स्वलक्षण के दर्शन और नील विकल्प में वह विशेष प्रत्यासत्ति एकविषयत्व विद्यमान हैं अत: निर्विकल्पक और सविकल्पक का एकत्व अध्यवसाय हो जाता है।