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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 290 फलत्वव्यवस्थानाद्विरोधानवतारात्। कथमेकं ज्ञानं करणं क्रिया च युगपदिति चेत् तच्छक्तिद्वययोगात् पावकादिवत्। पावको दहत्यौष्ण्येनेत्यत्र हि दहनक्रिया तत्कारणं चौष्ण्यं युगपत्पावके दृष्टं तच्छक्तिद्वयसंबंधादिति निर्णीतप्रायं। नन्वर्थोपि वैशद्यस्य प्रतिसंख्यानानिरोध्यत्वस्य चासंभवान्न ततोवग्रहस्याक्षजत्वसिद्धिरिति पराकूतमुपदर्य निराकुरुते;निर्विकल्पकया दृष्ट्या गृहीतेर्थे स्वलक्षणे। तदान्यापोहसामान्यगोचरोऽवग्रहो स्फुटः // 33 // सहभावी विकल्पोपि निर्विकल्पकया दृशा। परिकल्पनया वातो निषेध्य इति केचन // 34 // . तदसत्स्वार्थसंवित्तेरविकल्पत्वदूषणात्। सदा स व्यवसायाक्षज्ञानस्यानुभवात्स्वयम् // 35 // फलपना भी व्यवस्थित है। इसमें विरोध दोष का अवतार नहीं है। अर्थात् दीप ही प्रकाश का कारण है, और प्रदीप ही प्रकाश करना रूप क्रिया है, इसमें कोई विरोध नहीं। एक ज्ञान एक ही समय में एक साथ करण और क्रिया रूप कैसे हो सकता है ? ऐसी शंका करने पर जैनाचार्य समाधान करते हैं कि उन दो कार्यों को कराने वाली दो शक्तियों के योग होने से दो कार्य होते हैं-जैसे कि अग्नि, पाषाण आदि पदार्थ अपनी अनेक शक्तियों के बल से एक समय में अनेक कार्यों को कर देते हैं। अग्नि अपनी उष्णता से जल रही है या जला रही है। इस प्रकार यहाँ जलनारूप क्रिया और उसका कारण उष्णपना एक ही समय अग्नि में उन दो दाह्यत्व, दाहकत्व शक्तियों के सम्बन्ध से होते देखे गये हैं। उसका निर्णय पूर्व में कर चुके हैं। अर्थात् एक पदार्थ में दो तीन क्या अनेकानेक शक्तियाँ विद्यमान हैं और उनके कार्य भी सतत होते रहते हैं। अल्पज्ञ जीवों को उनके कतिपय कार्य ज्ञात हो जाते हैं, बहुत से ज्ञात नहीं होते हैं। शंका : अवग्रहज्ञान के विशदपन और प्रतिकूल प्रमाण से अनिरोध्यपन की असम्भवता है अतः उन हेतुओं से अवग्रह के अर्थजन्यत्व या इन्द्रियजन्यत्व की सिद्धि नहीं हो सकती। समाधान : इस प्रकार दूसरे प्रतिवादियों की अनधिकार चेष्टा को दिखलाकर आचार्य उसका निराकरण करते हैं। बौद्ध कहता है-परमार्थभूत निर्विकल्पक दर्शन के द्वारा गृहीत वस्तुभूत अर्थ के स्वलक्षण का अवस्तुभूत अन्यापोह सामान्य को विषय करने वाला अवग्रह ज्ञान होता है। ('यह विद्यार्थी है', 'यह वस्त्र है, इस प्रकार सामान्य को जानने वाला अवग्रह सब जीवों के प्रकट होकर अनुभूत हो रहा है ) / अथवा 'अवग्रहोस्फुटः' ऐसा वह सामान्यग्राही अवग्रह अस्पष्ट ज्ञान है अतः अवग्रह विशद नहीं हो सकता // 33 // निर्विकल्पक दर्शन के सहभावी अवग्रहरूप विकल्पज्ञान, निर्विकल्पक दर्शन के द्वारा अथवा दूसरी प्रतिकल्पना से निषेध्य है अतः अवग्रहज्ञान प्रतिसंख्यान से अनिरोध्य नहीं हो सकता इस प्रकार कोई कहता है॥३४॥ जैनाचार्य कहते हैं बौद्धों का यह कथन समीचीन नहीं है क्योंकि सम्यग्ज्ञान के द्वारा हुई स्व और अर्थ की संवित्ति
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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