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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 289 तदयोगात्। शक्यते हि कल्पनाः प्रतिसंख्यानेन निवारयितुं नेंद्रियबुद्धय इति स्वयमिष्टेः। मनोविकल्पस्य वैशद्यानिषेधोप्रमाणं चायं संवादकत्वात्साधकतमत्वादनिश्चितार्थनिश्चायकत्वात् प्रतिपत्त्रपेक्षणीयत्वाच्च। न पुनर्निर्विकल्पकं दर्शनं तद्विपरीतत्वात्सन्निकर्षादिवत् / फलं पुनरवग्रहस्य प्रमाणत्वे स्वार्थव्यवस्थितिः साक्षात्परंपरया त्वीहा हानादिबुद्धिर्वा / ननु च प्रमाणात्फलस्याभेदे कथं प्रमाणफलव्यवस्था विरोधादिति चेत् न, एकस्याने कात्मनो ज्ञानस्य साधकतमत्वेन प्रमाणत्वव्यवस्थितेः। क्रियात्वेन विशेषस्वरूप से पर्यायों को विषय करने वाले अवग्रह ज्ञान को इन्द्रियों से जन्य कहना युक्त ही है क्योंकि अवग्रह ज्ञान प्रतिकूल साधक प्रमाणों के द्वारा विरोध करने योग्य नहीं है तथा अवग्रहज्ञान स्पष्ट है। यदि उस अवग्रह को इन्द्रियों से जन्य नहीं माना जायेगा तो प्रतिकूल प्रमाणों से विरोध करने योग्य हो जायेगा और उस विशदज्ञानपने का अयोग हो जाएगा। कल्पना ज्ञान तो प्रतिकूल प्रमाणों के द्वारा निवारण किया जा सकता है, किन्तु इन्द्रियजन्य ज्ञान तो अन्य ज्ञानों से बाध्य नहीं है इस प्रकार बौद्धों ने स्वयं अपने ग्रन्थों में अभीष्ट किया है। मन इन्द्रियजन्य सच्चे विकल्पज्ञान के विशदपन का निषेध नहीं किया गया है। अथवा विकल्प रूप होने से अवग्रह ज्ञान को अप्रमाण कहना उपयुक्त नहीं है। क्योंकि यह विकल्पज्ञान प्रमाण हैनिर्बाधरूप से सम्वादक होने से, प्रमिति का साधकतम होने से, अनिश्चित अर्थों का निश्चित करने वाला होने से और अर्थों की प्रतिपत्ति करने वाले आत्माओं की अपेक्षा करने योग्य होने से। किन्तु बौद्धों द्वारा माना गया वस्तु, वस्तु अंश, संसर्ग, विशेष्य, विशेषण, अर्थ विकल्प आदि कल्पनाओं से रहित निर्विकल्पक दर्शन प्रमाण नहीं है उस प्रमाणत्व के साधक हेतुओं से विपरीत हेतुओं का साधक होने से अर्थात् विसम्वादकत्व सबाधपना या निरर्थक प्रवृत्तिजनकपना होने से, प्रमिति का करण नहीं होने से, अनिश्चित अर्थ का निश्चयकराने वाला नहीं होने से जिज्ञासु पुरुषों को अपेक्षणीय नहीं होने से निर्विकल्प दर्शन प्रमाण नहीं है, जैसे वैशेषिकों के द्वारा स्वीकृत सन्निकर्ष या कापिलों द्वारा मानी गयी इन्द्रियवृत्ति आदि प्रमाण नहीं है। प्रकरण में अवग्रह नाम का मतिज्ञान प्रमाण सिद्ध हो जाता है, उसका साक्षात् यानी अव्यवहित उत्तरकाल या समान काल में ही होने वाला फल स्व और अर्थ का व्यवसाय करा देना है तथा अवग्रह का परम्परा से होने वाला फल ईहा ज्ञान अथवा हान, उपादान, उपेक्षाबुद्धियाँ करा देना है। भावार्थ : जैन सिद्धान्तानुसार दीप और प्रकाश के समान समकाल पदार्थों में भी कार्यकारण भाव है। कार्य में व्यापार करने वाले कारण कार्य से पूर्वक्षण में रहने चाहिए। किन्तु कारण के साथ कथंचित् अभेद सम्बन्ध रखने वाले निवृत्ति, व्यवहारप्रयोजकत्व आदि कार्य तो कारण के समानकाल में रह जाते हैं। शंका : प्रमाण से फल को अपृथक् (अभेद) रूप मानने पर प्रमाण और प्रमाण के फल की व्यवस्था कैसे हो सकती है ? क्योंकि इस प्रकार मानने में विरोध आता है। अर्थात् प्रमाण और प्रमाण का फल एक ही समय एक पदार्थ में साथ नहीं रहते हैं। समाधान : इस प्रकार कहना उचित नहीं है क्योंकि अनेक धर्मस्वरूप एक ज्ञान के भी प्रमिति के साधकतम की अपेक्षा प्रमाणपना व्यवस्थित है और उसी ज्ञान को स्वकीय ज्ञान क्रियापन की अपेक्षा से
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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