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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 288 तथैवालोचनादीनां दृगादीनां च बुध्यते। संबंधस्मरणादीनामनुमानोपकारिणाम् // 29 // अत्यंताभ्यासतो ह्याशु वृत्तेरनुपलक्षणम्। क्रमशो वेदनानां स्यात्सर्वेषामविगानतः॥३०॥ ततः क्रमभुवोवग्रहादयो अनभ्यस्तदेशादाविवाभ्यस्तदेशादौ सिद्धाः स्वावरणक्षयोपशमविशेषाणां क्रमभावित्वात्। अत्रापर: प्राह / नाक्षजोऽवग्रहस्तस्य विकल्पात्मकत्वात्तत एव न प्रमाणमवस्तुविषयत्वादिति तं प्रत्याह;द्रव्यपर्यायसामान्यविषयोवग्रहोक्षजः। तस्यापरविकल्पेनानिषेध्यत्वात् स्फुटत्वतः॥३१॥ संवादकत्वतो मानं स्वार्थव्यवसितेः फलं। साक्षाद्व्यवहितं तु स्यादीहा हानादिधीरपि // 32 // द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषयोवग्रहोक्षजो युक्तः प्रतिसंख्यानेनाविरोध्यत्वाद्विशदत्वाच्च तस्यानक्षजत्वे शब्द में वैसे ही पूर्व सांकेतिक शब्द का सादृश्य प्रत्यभिज्ञान करते हुए आगमज्ञान उत्पन्न होता है। अत्यन्त . अधिक अभ्यास हो जाने से उक्त ज्ञानों की झटिति प्रवृत्ति हो जाती है अतः स्थूलदृष्टि जीवों को उनका अन्तराल नहीं दिख पाता है। वस्तुतः आत्मा के सम्पूर्ण ज्ञानों की निर्दोष रूप से क्रम करके ही प्रवृत्ति होती है। अर्थात् अत्यधिक अभ्यास हो जाने से आशुवृत्ति का दीखना नहीं होता है जैसे शीघ्र पुस्तक को पढ़ने वाला जन अक्षरों पर क्रम से जाने वाली दृष्टि की शीघ्र क्रमप्रवृत्ति को नहीं निरख पाता है॥२९-३०॥ ___अत: सिद्ध हुआ कि अभ्यास नहीं किये गये देश, स्थानवर्ती आदि पदार्थों में जैसे अवग्रह आदिक ज्ञान क्रम से होना सिद्ध होते हैं, उसी प्रकार अभ्यासप्राप्त देश, काल, पदार्थ आदि में भी अवग्रहादि क्रम से ही उत्पन्न होते हैं, क्योंकि अपने-अपने आवरण कर्मों के क्षयोपशम की विशेषताएँ क्रम से ही होने वाली ___ यहाँ कोई दूसरा (बौद्ध विद्वान्) कह रहा है कि अवग्रहज्ञान इन्द्रियों से उत्पन्न हुआ नहीं है। वह अवग्रह तो विकल्पस्वरूप ज्ञान है। इन्द्रियाँ संकल्प, विकल्परूप ज्ञानों को उत्पन्न नहीं करा सकती हैं। अवग्रहज्ञान विकल्पस्वरूप है, अत: अवस्तु को विषय करने वाला होने से वह प्रमाणज्ञान नहीं है। इस प्रकार कहने वाले को आचार्य उत्तर देते हैं - . सामान्यरूप से द्रव्य और पर्यायों को विषय करने वाला अवग्रहज्ञान अवश्य ही इन्द्रियजन्य है। क्योंकि वह अवग्रहज्ञान अन्य विकल्पज्ञानों से निषेध करने योग्य नहीं है तथा वह अवग्रहज्ञान स्पष्ट भी है॥३१॥ ___ यह अवग्रहज्ञान प्रमाण है-संवादक होने से, जो ज्ञान सफल प्रवृत्तिजनक या बाधारहितरूप संवादक होते हैं, वे प्रमाण होते हैं। इस अवग्रहज्ञान का साक्षात् फल तो अपना और अर्थ का निर्णय करना है, तथा परम्पराप्राप्त फल ईहा ज्ञान को उत्पन्न कराना अथवा अपने विषय में हान, उपादान, उपेक्षा बुद्धियाँ उत्पन्न करा देना भी है॥३२॥ 'यह मनुष्य है', 'यह शुक्लवस्तु है', 'यह पुस्तक है' - इस प्रकार सामान्यरूपं से द्रव्य और
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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