________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 293 नेहानिद्रियजैवाक्षव्यापारापेक्षणा स्फुटा। स्वाक्षव्यापृत्यभावेस्याः प्रभवाभावनिर्णयात् // 44 // न हि मानसं प्रत्यक्षमीहास्तु स्पष्टत्वादक्षज्ञानसमनंतरप्रत्ययत्वाच्च निश्चयात्मकमपि जात्यादिकल्पनारहितमभ्रांतं चेति कश्चित् / तदनिश्चयात्मकमेव निर्विकल्पस्याभ्रांतस्य च निश्चयात्मविरोधादित्यपरः। तन्मतमपाकुर्वन्नाह;नापीयं मानसं ज्ञानमक्षवित्समनंतरं। निश्चयात्मकमन्यद्वा स्पष्टाभं तत एव नः॥४५॥ तस्य प्रत्यक्षरूपस्य प्रमाणेन प्रसिद्धितः / स्वसंवेदनतोन्यस्य कल्पनं किमु निष्फलम् // 46 // मानसस्मरणस्याक्षज्ञानादुत्पत्त्यसंभवात्। विजातीयात्प्रकल्प्येत यदि तत्तस्य जन्म ते // 47 // अब प्रकरणप्राप्त ईहा का इस समय विचार करने के लिए उपक्रम रचा जाता है। क्या मन, इन्द्रिय से ही उत्पन्न होने वाली ईहा है? अथवा बहिरंग इन्द्रियों से ही उत्पन्न ईहाज्ञान है? या इन्द्रिय अनिन्द्रिय दोनों से उत्पन्न ईहाज्ञान है? इस प्रकार प्रश्न होने पर उनमें से एक-एक विकल्प का विचार करते केवल मन से ही उत्पन्न ईहा नहीं है, क्योंकि सभी इन्द्रियों के व्यापार की अपेक्षा रखने वाली ईहा स्पष्ट प्रतीत हो रही है। आत्मा और इन्द्रिय के व्यापार नहीं होने पर उस ईहा की उत्पत्ति के अभाव का निर्णय है। अर्थात्-केवल मन से ही ईहा उत्पन्न नहीं हो जाती है। किन्तु आत्मा और बहिरंग इन्द्रियाँ भी ईहा की उत्पत्ति में व्यापार करती हैं अतः ईहा उभयजन्या है॥४४॥ केवल मानसप्रत्यक्ष ही ईहा ज्ञान नहीं है, क्योंकि वह ईहा ज्ञान स्पष्टपना होने के कारण और इन्द्रियजन्य अवग्रह ज्ञान के अव्यवहित उत्तरवर्तीज्ञान होने के कारण निश्चयात्मक भी है। अर्थात्-मानस प्रत्यक्ष के अतिरिक्त भी सविकल्पक, निश्चयात्मक, अन्य ईहा ज्ञान संभव है। वह ईहाज्ञान जाति, सम्बन्ध, शब्द योजना आदि कल्पनाओं से रहित है और भ्रान्ति रहित है 'कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षं' इस प्रकार कोई * (तथागत) कह रहा है। तथा वह ईहाज्ञान अनिश्चयस्वरूप ही है, निश्चयात्मक नहीं है, क्योंकि भ्रान्ति रहित निर्विकल्पकज्ञान को निश्चय स्वरूप होने का विरोध है। इस प्रकार कोई दूसरा बौद्ध कह रहा है। उनके मत का निवारण करते हुए आचार्य महाराज कहते हैं - यह ईहा ज्ञान मन इन्द्रिय जन्य मानस प्रत्यक्ष ही नहीं है क्योंकि इन्द्रियजन्य ज्ञान के अव्यवहित उत्तरकाल में ईहाज्ञान उत्पन्न होता है। इसलिए ईहाज्ञान निश्चयात्मक, अथवा अन्य भी (अगृहीत ग्राहक, प्रतिपत्ता को अपेक्षणीय, समारोप निषेधक आदि) विशेषणों से युक्त है। इसलिए हमने ईहाज्ञान को स्पष्ट प्रकाश के इष्ट किया है॥४५॥ सांव्यवहारिक प्रत्यक्षरूप उस ईहाज्ञान की प्रमाण के द्वारा प्रसिद्धि है तथा स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से ईहाज्ञान प्रत्यक्षस्वरूप है अतः इससे ईहाज्ञान की व्यर्थ अन्य कल्पना क्यों की जाती है? // 46 // .. यदि ईहा को मानस स्मरणज्ञान स्वीकार किया जाता है तो ईहा की बहिरंग इन्द्रियजन्य ज्ञानों से उत्पत्ति होना असम्भव हो जाता है, क्योंकि इन्द्रियप्रत्यक्ष ज्ञान से मानसस्मरण की जाति पृथक् है। यदि बौद्ध * विजातीय इन्द्रियज्ञान से भी उस मानसस्मरण की उत्पत्ति कल्पित करते हैं तब तो मानसप्रत्यक्ष का जन्म