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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 285 य एवाहं किंचिदिति वस्तुमात्रमिंद्रियानिंद्रियाभ्यामद्राक्षं स एव तद्वर्णसंस्थानादिसामान्यभेदेनावगृह्णामि तद्विशेषात्मनाकांक्षामि तदेव तथावैमि तदेव धारयामीति क्रमश: स्वयं दर्शनावग्रहादीनामिंद्रियानिंद्रियोत्पाद्यत्वं प्रतीयते प्रमाणभूतात्प्रत्यभिज्ञानात् क्रमभाव्यनेकपर्यायव्यापिनो द्रव्यस्य निश्चयादित्युक्तप्रायम्॥ वर्णसंस्थादिसामान्यं यत्र ज्ञानेवभासते। तन्नो विशेषणज्ञानमवग्रहपराभिधम् // 19 // विशेषनिश्चयो वा य इत्येतदुपपद्यते। ज्ञानेनेहाभिलाषात्मा संस्कारात्मा न धारणा // 20 // इति केचित्प्रभाषते तच्च न व्यवतिष्ठते। विशेषवेदनस्थेह दृढस्येहात्वसूचनात् // 21 // ततो दृढतरावायज्ञानाद् दृढतमस्य च। धारणत्वप्रतिज्ञानात् स्मृतिहेतोर्विशेषतः // 22 // अज्ञानात्मकतायां तु संस्कारस्येह तस्य वा। ज्ञानोपादानता न स्याद्रूपादेरिव सास्ति च // 23 // जो मैं “कुछ हूँ" - इस प्रकार महासत्तास्वरूप केवल सामान्य वस्तु को अनिन्द्रियों के द्वारा देख चुका था, सो ही मैं रूप आकृति रचना आदि सामान्य भेदों से उस वस्तु का अवग्रह कर रहा हूँ तथा वही मैं अन्य विशेष अंश स्वरूप करके उस वस्तु के आकांक्षारूप का ज्ञान कर रहा हूँ। तथा वही मैं उसी प्रकार इस रूप से उसी वस्तु का निश्चय कर रहा हूँ एवं वही मैं उसी वस्तु की कालान्तर तक स्मरण करने की योग्यता को धारण कर रहा हूँ इस प्रकार क्रम से दर्शन, अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा ज्ञानों का इन्द्रियअनिन्द्रियों के द्वारा उत्पत्ति की योग्यता स्वयं प्रतीत हो रही है। वही एक आत्मा क्रम से दर्शन और अनेक ज्ञानों को उत्पन्न करती है अतः प्रमाणभूत सिद्ध प्रत्यभिज्ञान के द्वारा क्रम से होने वाली अनेक पर्यायों में व्यापने वाले द्रव्य का निश्चय हो रहा है इसको हम पूर्व में कई बार कह चुके हैं। जिस ज्ञान में वर्ण, रचना, आकृति आदि का सामान्य से प्रतिभास होता है वह ज्ञान हमारे यहाँ विशेषण ज्ञान है। उसका दूसरा नाम अवग्रह है। तथा जिस ज्ञान के द्वारा वस्तु के विशेष अंशों का निश्चय कराया जाता है, वह अवाय है। इस प्रकार यह अवाय ज्ञान भी उत्पन्न हो सकता है। किन्तु अभिलाषारूप से स्वीकृत ईहा ज्ञान और संस्कारस्वरूप धारणाज्ञान सिद्ध नहीं हो पाते हैं, क्योंकि अभिलाषा तो इच्छा है। वह आत्मा ज्ञान से पृथक् स्वतंत्र गुण है तथा भावनारूप संस्कार भी ज्ञान से पृथक् स्वतंत्र गुण है। अतः इच्छा और संस्कार तो ज्ञानस्वरूप नहीं हो सकते हैं। इस प्रकार कोई कहते हैं। इस प्रकार कोई कहते हैं। किन्तु उनका यह मन्तव्य व्यवस्थित नहीं हो सकता है क्योंकि इस प्रकरण में वस्तु के अंशों की आकांक्षारूप दृढ़ विशेष ज्ञान को ईहापना सूचित किया है। उस दृढ़ ईहा ज्ञान से अधिक दृढ़ अवाय ज्ञान है और अवाय ज्ञान से भी बहुत अधिक दृढ़ तथा स्मृति का कारणभूत धारणा ज्ञान विशेषरूप से प्रतिज्ञा है। भावार्थ : मोहनीय कर्म के उदय से आत्मा के चारित्र गुण की विभाव पर्याय इच्छा है। आत्मा के चैतन्य गुण का परिणाम ज्ञान है अत: इच्छा से ईहा ज्ञान पृथक् है। पूर्वसमयवर्तिनी आकांक्षा का विकल्प करता हुआ ईहा ज्ञान उत्पन्न होता है अतः उसे आकांक्षापन से व्यवहार कर लिया जाता है। धारणा ज्ञान तो संस्काररूप है। ज्ञान में विशिष्ट क्षयोपशमानुसार अतिशयों का उत्पन्न हो जाना ही ज्ञानस्वरूप संस्कार है। इससे अलग कोई भावना नाम का संस्कार हमें अभीष्ट नहीं है। यदि इस प्रकरण में संस्कार को अज्ञान
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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