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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 286 सुखादिना न चात्रास्ति व्यभिचारः कथंचन / तस्य ज्ञानात्मकत्वेन स्वसंवेदनसिद्धितः // 24 // सर्वेषां जीवभावानां जीवात्मत्वार्पणान्नयात्। संवेदनात्मतासिद्ध पसिद्धान्तसंभवः // 25 // ____ औपशमिकादयो हि पंच जीवस्य भावाः संवेदनात्मका एवोपयोगस्वभावजीवद्रव्यार्थादेव / तत्र केषांचिदसंवेदनात्मत्वोपदेशादन्यथा तद्व्यवस्थितिविरोधादिति वक्ष्यते॥ तत एव प्रधानस्य धर्मा नावग्रहादयः। आलोचनादिनामानः स्वसंवित्तिविरोधतः // 26 // आलोचनसंकल्पनाभिमननाध्यवसाननामानोवग्रहादयः प्रधानस्य विवर्ताश्चेतना पुंसः स्वभाव इति येप्याहुस्तेपि न युक्तवादिनः, स्वसंवेदनात्मकत्वादेव तेषामात्मस्वभावत्वप्रसिद्धरन्यथोपगमे स्वसंवित्तिविरोधात्। न हीदं स्वसंवेदनं भ्रांतं बाधकाभावादित्युक्तं पुरस्तात्॥ स्वरूप माना जाएगा, तब तो वह संस्कार स्मरणज्ञान का उपादान कारण न हो सकेगा, जैसे कि रूप, रस आदि गुण ज्ञान के उपादान कारण नहीं हैं, किन्तु संस्काररूप धारणा को स्मृति ज्ञान की वह उपादानता प्राप्त है। अत: वह संस्कार धारणा नामक ज्ञान ही है। ज्ञान से भिन्न कोई गुण भावना नाम का संस्कार सिद्ध नहीं है॥१९-२०-२१-२२-२३॥ तथा ऐसा मानने पर सुखादि के साथ किसी प्रकार का व्यभिचार नहीं है, क्योंकि उन सुखादि की ज्ञानस्वरूप से स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष द्वारा सिद्धि हो रही है। अर्थात्-चेतन आत्मा के सुख, इच्छा, भावना आदि रूप सभी परिणामों पर चैतन्यभाव अन्वित है। जीव के सम्पूर्ण परिणामों को चेतन जीवस्वरूपपने की अर्पणा करने वाली नय से सम्वेदनस्वरूपपना सिद्ध है अतः हम स्याद्वादियों के यहाँ अपसिद्धान्त हो जाने की सम्भावना नहीं है॥२४-२५॥ जीव के औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक, पारिणामिक पाँच भाव चैतन्य उपयोगस्वरूप जीव पदार्थ को विषय करने वाली द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से संवेदनात्मक (चैतन्यस्वरूप) ही हैं। तथा प्रमाणदृष्टि या पर्यायार्थिक नय से वहाँ कोई-कोई भावों का असम्वेदन स्वरूपपना उपदेश किया है। अन्यथा (ज्ञानात्मक और असंवेदनात्मक हुए बिना) उन भावों की ठीक-ठीक व्यवस्था होने का विरोध है। इसको आगे स्पष्ट करेंगे। भावार्थ : पर्याय दृष्टि से यद्यपि उपशमचारित्र, इच्छा, आदि पर्यायें ज्ञानपर्याय से भिन्न हैं अत: वे कथंचित् असम्वेदनस्वरूप हो सकती हैं, फिर भी चैतन्यद्रव्य का अन्वितपना अपरिहार्य है। ___ अत: चेतन जीवद्रव्य के तदात्मक परिणाम होने से अवग्रह आदि ज्ञान सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण की साम्य अवस्थारूप प्रधान (प्रकृति) के भी धर्म नहीं हैं। सांख्यों के द्वारा आलोचन, संकल्प, अभिमान आदि नामों से संकेतित अवग्रहादि को जड़ प्रकृति का धर्म मानने पर उनके स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष होने का विरोध आता है। अर्थात् ज्ञानस्वरूप या चेतन जीवस्वरूप पदार्थों का ही स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष होना सम्भव है॥२६॥ ___ आलोचन, संकल्पन, अभिमान, अध्यवसाय, नामों को धारने वाले अवग्रह आदि ज्ञान प्रकृति के ही पर्याय (परिणाम) हैं।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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