SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 289
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 284 कृतो भेदो नयात्सत्तामात्रज्ञात्संग्रहात्परम् / नरमात्राच्च नेत्रादिदर्शनं वक्ष्यतेग्रतः // 15 // न हि सन्मात्रग्राही संग्रहो नयो दर्शनं स्यादित्यतिव्याप्तिः शंकनीया तस्य श्रुतभेदत्वादस्पष्टावभासितया नयत्वोपपत्तेः श्रुतभेदा नया इति वचनात्। नाप्यात्ममात्रग्रहणं दर्शनं चक्षुरवधिकेवलदर्शनानामभावप्रसंगात्। चक्षुराद्यपेक्षस्यात्मनस्तदावरणक्षयोपशमविशिष्टस्य चक्षुर्दर्शनादिविभागभाक्त्वे तु नात्ममात्रग्रहणे दर्शनव्यपदेशः श्रेयानित्यग्रे प्रपंचतो विचारयिष्यते॥ नन्ववग्रहविज्ञानं दर्शनाजायते यदि। तस्येंद्रियमनोजत्वं तदा किं न विरुध्यते // 16 // पारंपर्येण तजत्वात्तस्येहादिविदामिव / को विरोधः क्रमाद्वाक्षमनोजन्यत्वनिश्चयात् // 17 // इंद्रियानिद्रियाभ्यां हि यस्त्वालोचनमात्मनः / स्वयं प्रतीयते यद्वत्तथैवावग्रहादयः॥१८॥ अवग्रह प्रमाण भिन्न है। अर्थात् पहले दर्शन तो प्रमाण अप्रमाण कुछ भी नहीं है। दूसरा अनध्यवसाय अप्रमाण है। तीसरा अवग्रह प्रमाण है॥१४॥ त्रिलोक, त्रिकाल की वस्तुओं के सत्त्वमात्र को ग्रहण कर जानने वाले संग्रह नय से यह आलोचन आत्मक दर्शन उपयोग निराला है अत: संग्रहनय से दर्शन का भेद कर दिया गया है, क्योंकि संग्रहनय द्वारा स्वजाति का अविरोध करके भेदों का समस्त ग्रहण होता है। अद्वैतवादियों के ब्रह्मदर्शन समान केवल आत्मा का मन इन्द्रिय द्वारा अचक्षु दर्शन हो जाना ही सम्पूर्ण दर्शन उपयोग नहीं है, क्योंकि आत्मज्ञान के पूर्वभावी चक्षु, अवधि, केवल दर्शन भी दर्शनोपयोग में परिगणित हैं, इसका कथन आगे करेंगे॥१५॥ . सम्पूर्ण वस्तुओं की सत्ता को ग्रहण करने वाला संग्रहनय दर्शनोपयोग है। इस प्रकार की अतिव्याप्ति दोष की शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि, वह संग्रहनय श्रुतज्ञान का भेद है। अविशद प्रतिभासनेवाला ज्ञान होने से उस संग्रह को नयपना है। श्रुतज्ञान के भेद नयज्ञान होते हैं ऐसा ग्रन्थों में कहा गया है तथा, केवल आत्मा का ही ग्रहण करना भी दर्शनोपयोग नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अचक्षुदर्शन से अतिरिक्त चक्षुर्दर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन के अभाव का प्रसंग आता है। यदि चक्षु या स्पर्शन, रसना, घ्राण, श्रोत्र, मन, रूप अचक्षु आदि की अपेक्षा रखने वाले और चक्षुः आवरण कर्म के क्षयोपशम आदि से विशिष्ट आत्मा को ही चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शनरूप विभागों को धारण कर लेने वाला माना जाता है, तब तो केवल आत्मा के ग्रहण करने में ही दर्शन उपयोग का व्यवहार करना श्रेष्ठ नहीं है। इस बात को आगे विस्तार से वर्णन करेंगे। शंका : अवग्रहरूप मतिज्ञान यदि दर्शन से उत्पन्न होता है, तब तो उस मतिज्ञान का पूर्व सूत्रानुसार इन्द्रिय और मन से जन्यपना विरुद्ध क्यों नहीं होगा? समाधान : ईहा, अवाय आदि ज्ञानों के समान वह अवग्रह भी परम्परा से इन्द्रिय और मन से जन्य है। अथवा क्रम से अक्ष और मन द्वारा जन्यपने का निश्चय हो जाने के कारण कौनसा विरोध आता है ? कोई विरोध नहीं है। अर्थात् साक्षात् रूप से अवग्रह दर्शन से उत्पन्न होता है परन्तु परम्परा से इन्द्रिय मन से जन्य है यह क्रम चालू है, क्योंकि जिस प्रकार अनिन्द्रिय से आत्मा का दर्शन होना स्वयं प्रतीत हो रहा है, उसी प्रकार अवग्रह, ईहा आदि भी इन्द्रिय और मन से होते हुए स्वयं प्रतीत हो रहे हैं॥१६-१७ 18 //
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy