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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 283 रहितस्यानुंपलंभनात्। ततस्तस्यैव सत्सामान्यविशेषात्मनोर्थस्याव्यभिचारित्वलक्षणं पारमार्थिकत्वं युक्तमिति तद्विधातृप्रत्यक्षं सिद्धम् // जात्यादिकल्पनोन्मुक्तं वस्तुमात्रं स्वलक्षणम्। तज्ज्ञानमक्षजं नान्यदित्यप्येतेन दूषितम् // 11 // _ किं पुनरेवं स्याद्वादिनो दर्शनमवग्रहपूर्वकालभावि भवेदित्यत्रोच्यतेकिंचिदित्यवभास्यत्र वस्तुमात्रमपोद्धृतं / तद्ग्राहि दर्शनं ज्ञेयमवग्रहनिबंधनम् // 12 // अनेकांतात्मके भावे प्रसिद्धपि हि भावतः। पुंसः स्वयोग्यतापेक्षं ग्रहणं क्वचिदंशतः॥१३॥ तेनार्थमात्रनिर्भासाद्दर्शनाद्भिन्नमिष्यते। ज्ञानमर्थविशेषात्माभासि चित्त्वेन तत्समम् // 14 // विशेषात्मक सत् वस्तु का दर्शन होता है। उस सामान्य विशेष-आत्मक वस्तु में कोई व्यभिचार नहीं है। किसी एक विशेषसत् से रहित केवल सत् का उपलम्भ होने पर भी सत् के अन्य विशेषों से रहित सत् मात्र का किसी को उपलम्भ नहीं होता है। इसलिए उस सामान्य विशेष आत्मक वस्तु का विधान करने वाला प्रत्यक्ष प्रमाणसिद्ध है। अर्थात् विशेषरहित शुद्ध सत्ता मात्र वा निर्विकल्प वस्तु दृष्टिगोचर नहीं हो रही है अपितु विशेष सहित सविकल्प वस्तु दृष्टिगोचर हो रही है, अनुभव में आ रही है, वही सत्य है। सभी प्रत्यक्ष सामान्य विशेष आत्मक वस्तु का विधान करते हैं, सामान्य विशेष आत्मक वस्तु का निषेध नहीं करते हैं। जात्यादि कल्पनाओं से सर्वथा रहित क्षणिक स्वलक्षणमात्र वस्तुभूत ज्ञान ही इन्द्रियजन्य है, और ज्ञेय आदि कोई वस्तु नहीं है, ऐसा कहने वाले का भी खंडन कर दिया गया है॥११॥ स्याद्वादियों के यहाँ माना गया सामान्य को ग्रहण करने वाला दर्शनोपयोग क्या फिर इस प्रकार सामान्य विशेष आत्मक वस्तु को जानने वाले अवग्रह ज्ञान से पूर्वकाल में होने वाला होगा ? या कैसा होगा? इस प्रकार सच्छिष्य की आकांक्षा होने पर आचार्य कहते हैं - * “कुछ है"- इस प्रकार सामान्य वस्तु को ग्रहण करने वाला प्रतिभास दर्शनोपयोग है। वह दर्शनोपयोग अवग्रह ज्ञान का कारण है। ऐसा जानना चाहिए। भावार्थ : पदार्थ के विशेष को नहीं ग्रहण कर केवल उसकी महासत्ता का आलोचन करने वाला दर्शन है, उसके पीछे शीघ्र ही विशेषों को जानने वाला ज्ञान उत्पन्न होता है वह अवग्रह है। इस सामान्यग्राही दर्शन के पीछे हुए ज्ञान का कालव्यवधान सब जीवों को प्रतीत नहीं होता है। वह आलोचन करने वाला दर्शन उपयोग अवग्रह मतिज्ञान का कारण है॥१२॥ . यद्यपि सम्पूर्ण पदार्थ भावदृष्टि से सामान्य-विशेष, आधार-आधेय, जन्य-जनक आदि अनेक धर्म स्वरूप प्रसिद्ध होने पर भी आत्मा के अपनी ज्ञानावरण और वीर्यान्तराय के क्षयोपशमरूप योग्यता की अपेक्षा से किसी-किसी धर्म में अंशरूप से ग्रहण होना सिद्ध होता है॥१३॥ अतः सत्तामात्र सामान्य अर्थ को प्रकाशित करने वाले दर्शन से यह विशेषस्वरूप अर्थों को ग्रहण करने वाला अवग्रह ज्ञान भिन्न माना गया है। यद्यपि चैतन्यरूप से (वा ज्ञानस्वरूप से) दर्शन और अवग्रह -- समान हैं, तथापि सत्ता का आलोचन करने वाला दर्शन पृथक् है, और सामान्य विशेष वस्तु को जानने वाला
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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