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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 280 तस्यैव निर्णयोऽवाय: स्मृतिहेतुः सा धारणा। इति पूर्वोदितं सर्वं मतिज्ञानं चतुर्विधम् // 4 // सामानाधिकरण्यं तु तदेवावग्रहादयः। तदिति प्राक्सूत्रतच्छब्दसंबंधादिह युज्यते // 5 // तदिंद्रियानिंद्रियनिमित्तमित्यत्र पूर्वसूत्रे यत्तद्ग्रहणं तस्येह संबंधात्सामानाधिकरण्यं युक्तं तदेवावग्रहादय इति / भावतद्वतोर्भेदात्तस्यावग्रहादयोभिहितलक्षणा इति वैयधिकरण्यमेवेति नाशंकनीयं तयोः कथंचिदभेदात्सामानाधिकरण्यघटनात्। भेदैकांते तदनुपपत्तेः सह्यविंध्यवदित्युक्तप्रायम्॥ तत्र यद्वस्तुमात्रस्य ग्रहणं पारमार्थिकम् / द्विधा त्रेधा क्वचिज्ज्ञानं तदित्येकं न चापरम् / / 6 / / तन्न साध्वक्षजस्यार्थभेदज्ञानस्य तत्त्वतः। स्पष्टस्यानुभवाद्बाधा विनिर्मुक्तस्य सर्वदा // 7 // आकांक्षाज्ञान द्वारा जाने गये अर्थ का दृढ़ निर्णय कर लेना अवायज्ञान है। वही निर्णय पीछे कालान्तर तक स्मरण बनाये रखने का हेतु होता हुआ जब दृढ़तर संस्काररूप बन जाता है तो वह धारणा मतिज्ञान समझा जाता है। स्मृति का कारणभूत ज्ञान धारणा है। इस सम्पूर्ण विषय का कथन पूर्व में कर दिया गया है। इस प्रकार मतिज्ञान चार प्रकार के सिद्ध हैं॥४॥ यहाँ अधिकार प्राप्त मतिज्ञान का सत्रोक्त अवग्रह आदिक के साथ समान अधिकरण कर लेना चाहिए कि वह मतिज्ञान ही अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणास्वरूप है। पहले के "तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्” इस सूत्र के तत् शब्द का सम्बन्ध हो जाने से यहाँ भी तत् यानी वह मतिज्ञान अवग्रह आदि भेदस्वरूप है। इस प्रकार अवग्रह आदि के साथ सामानाधिकरण्य बना लेना युक्तिपूर्ण है॥५॥ _ "तदिन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तम्” ऐसे इस पहले के सूत्र में तत् शब्द ग्रहण किया है। उस तत् शब्द की इस “अवग्रहेहावायधारणा:" सूत्र में अनुवृत्ति कर सम्बन्ध कर देने से वह मतिज्ञान ही अवग्रह आदि स्वरूप होता है। इस प्रकार समान अधिकरण कर लेना युक्त हो जाता है। भाव (परिणाम) और भाववान (परिणामी) पदार्थों का भेद हो जाने के कारण मतिज्ञानरूप परिणामी के अवग्रह आदि परिणाम हैं, जिनके लक्षण पूर्व में कहे जा चुके हैं। इस प्रकार प्रकरण अनुसार अर्थवश तत् शब्द की प्रथमा विभक्ति का षष्ठीविभक्तिरूप विपरिणाम कर षष्ठ्यन्त मतिज्ञान का प्रथमान्त अवग्रह आदि के साथ व्यधिकरणपना ही सुबोधकारक दीखता है। ऐसी शंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि उन परिणामी और परिणाम रूप मतिज्ञान और अवग्रह आदि का कथंचित् अभेद हो जाने से समान अधिकरणपना घटित हो जाता है। सर्वथा भेद का एकान्त मानने पर तो भाव और भाववान में वह समान अधिकरण नहीं बन सकता है। जैसे सर्वथा भिन्न सह्य पर्वत और विंध्यपर्वत, सह्य ही विंध्य है, अथवा विंध्य ही सह्य है, यह समानाधिकरण नहीं बनता है। इस बात को हम पूर्व में कई बार कह चुके हैं। ब्रह्माद्वैत - जो शुद्ध सत्तामात्र वस्तु को ग्रहण करता है, वह ज्ञान ही पारमार्थिक है। अवान्तर भेद वाली सत्ता को जानने वाला भेदज्ञान यथार्थ नहीं है। कहीं भी इन्द्रिय, अनिन्द्रिय से उत्पन्न हुआ दो प्रकार का ज्ञान या भेद, अभेद, भेदाभेद के अनुसार समानाधिकरणपना व्यधिकरणपना बनाकर तीन प्रकार के कल्पित किये गए ज्ञान वे सब एक ही हैं, पृथक्-पृथक् नहीं अर्थात् चिदाकार, शुद्ध,
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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