SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 284
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 279 मतिज्ञानस्य निर्णीतप्रकारस्यैकशो विदे। भिदामवग्रहेत्यादिसूत्रमाहाविपर्ययम् // 1 // मतिज्ञानस्य निर्णीताः प्रकारा मतिस्मृत्यादयस्तेषां प्रत्येकं भेदानां वित्त्यैवसूत्रमिदमारभ्यते। यथैव हींद्रियमनोमतेः स्मृत्यादिभ्यः पूर्वमवग्रहादयो भेदास्तथानिंद्रियनिमित्ताया अपीति प्रसिद्ध सिद्धांते॥ किंलक्षणाः पुनरवग्रहादय इत्याह;अक्षार्थयोगजाद्वस्तुमात्रग्रहणलक्षणात् / जातं यद्वस्तुभेदस्य ग्रहणं तदवग्रहः // 2 // तद्गृहीतार्थसामान्ये यद्विशेषस्य कांक्षणम् / निश्चयाभिमुखं सेहा संशीतेर्भिन्नलक्षणा // 3 // जाने जा चुके भेदों को कह दिया जाए। अर्थात् मतिज्ञान के अज्ञात भेदों का कथन करने के लिए भी यह सूत्र नहीं कहा गया है, क्योंकि ऐसा कहने पर अवग्रह आदि को मतिज्ञान से.पृथक् अन्य प्रमाण का प्रसंग आता है। इस प्रकार से मन में मानने वाले के प्रति आचार्य द्वारा समाधान किया जाता है - मति, स्मृति आदि प्रकार निर्णीत कर दिये गये हैं जिसके, ऐसे मतिज्ञान के एक एक भेद को समझाने के लिए उमास्वामी महाराज ने श्रोताओं की विपरीत बुद्धि का अभाव करने के लिए अवग्रहेहावायधारणा:' इस सूत्र को कहा है॥१॥ ___ मतिज्ञान के मति, स्मृति, संज्ञा, चिंता, स्वार्थानुमान, प्रतिभा, अर्थापत्ति आदि प्रकारों का पूर्व सूत्र में निर्णय किया जा चुका है। उन प्रकारों के प्रत्येक भेद का ज्ञान कराने के लिए ही इस सूत्र को कहा गया है। जिस प्रकार इन्द्रिय और मन से उत्पन्न हुई मति के स्मृति आदि प्रकारों से पहले अवग्रह, ईहा, अवाय आदिक भेद उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार केवल मनरूप निमित्त से ही उत्पन्न हुई मति के भी पूर्व में अवग्रह आदि भेद उत्पन्न होते हैं। ऐसा जैन सिद्धान्त में प्रसिद्ध है। भावार्थ : जिस प्रकार अनुमान के पहले व्याप्तिज्ञान, व्याप्तिज्ञान के पहले प्रत्यभिज्ञान, प्रत्यभिज्ञान के पहले स्मृतिज्ञान, स्मृति के पहले धारणा, धारणा के पहले अवाय, अवाय के पहले ईहा, ईहा के पूर्व * में अवग्रह-ये सम्यग्ज्ञान होते हैं। यद्यपि अवग्रह के पहले कदाचित् निर्विकल्पक आलोचनात्मक दर्शन होता है। फिर भी सम्यग्ज्ञान का प्रकरण होने से उनको यहाँ गिनाया नहीं है। . फिर उन अवग्रह, ईहा आदि का निर्दोष लक्षण क्या हो सकता है? इस प्रकार जिज्ञासा होने पर आचार्य कहते हैं विषय और विषयी (अर्थ और स्पर्शनादि इन्द्रियों) के संयोग से वस्तु की सामान्य महासत्ता का आलोचन करना (वस्तु की सत्ता मात्र का अवलोकन करना) स्वरूप दर्शन उपयोग के अनन्तर अवान्तर सत्तावाली वस्तु के विशेष भेद को ग्रहण करने वाला जो ज्ञान उत्पन्न होता है, वह अवग्रह नाम का मतिज्ञान है॥२॥ _____ उस अवग्रह से ग्रहण किये हुए सामान्य अर्थ में जो विशेष अंशों के निश्चय करने के लिए अभिमुख आकांक्षारूप ज्ञान है, उसको ईहा कहते हैं। वह ईहा ज्ञान संशयात्मकज्ञान से भिन्न लक्षणवाला है अर्थात् संशय में तो विरुद्ध दो तीन आदि कोटियों का स्पर्श होता रहता है किन्त ईहाज्ञान में एक कोटि का ही निश्चय करने के लिए उत्सुकता पाई जाती है, जैसे कि “यह मनुष्य दक्षिण देशवासी होना चाहिए" // 3 //
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy