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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 278 मत्यज्ञानमपींद्रियानिंद्रियनिमित्तमस्ति तस्य कुतो व्यवच्छेदः सम्यगधिकारात्। तत एवासंज्ञिपंचेंद्रियांतानां मत्यज्ञानस्य व्यवच्छेदोस्तु तर्हि श्रुतव्यवच्छेदार्थं पूर्वावधारणं तस्यानिंद्रियमात्रनिमित्तत्वात्। तथा मिथ्यादृशां दर्शनमोहोपहतमनिंद्रियं सदप्यसत्कल्पनेति विवक्षायां तद्वेदनमिंद्रियजमेवेति मत्यज्ञानं सर्वत उभयनिमित्तं ततस्तद्व्यवच्छेदार्थं च युक्तं पूर्वावधारणम्॥ अवग्रहेहावायधारणाः॥ 15 // ____किमर्थमिदमुच्यते न तावत्तन्मतिभेदानां कथनार्थं मतिः स्मृत्यादिसूत्रेण कथनात् / नापि मतेरज्ञातभेदकथनार्थं प्रमाणांतरत्वप्रसंगादिति मन्यमानं प्रत्युच्यते; शंका : संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीवों के भी तो मति अज्ञान उत्पन्न होने में इन्द्रिय और अनिन्द्रिय निमित्त होते हैं, तो फिर उस मति अज्ञान का पहली अवधारणा से व्यवच्छेद कैसे हो सकता है? .. समाधान : पूर्व सूत्रों से यहाँ सम्यक् शब्द का अधिकार चला आ रहा है। मिथ्यादृष्टियों का ज्ञान समीचीन नहीं है, तथा मिथ्यादृष्टियों के इन्द्रिय, अनिन्द्रिय भी सम्यक् नहीं हैं इसलिए मिथ्यादृष्टियों के ज्ञान का निराकरण हो जाता है। शंका : सम्यक् का अधिकार होने से ही एकेन्द्रिय को आदि लेकर असंज्ञी पंचेन्द्रियपर्यन्त जीवों के मति अज्ञान का व्यवच्छेद हो जाता है। अर्थात् सम्यग्दर्शन नहीं होने से असंज्ञीपर्यन्त जीवों का ज्ञान : सम्यग्ज्ञान नहीं है अतः पहला एवकार व्यर्थ है? समाधान : श्रुतज्ञान के व्यवच्छेद के लिए पहली अवधारणा रहो, क्योंकि वह श्रुतज्ञान केवल मनरूप निमित्त से ही उत्पन्न होता है। मिथ्यादृष्टि जीवों का दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से विद्यमान भी मन अविद्यमान सदृश है। इस प्रकार विवक्षा करने पर वह मिथ्यादृष्टियों का ज्ञान इन्द्रियजन्य ही है अतः सभी संज्ञी असंज्ञी जीवों के मति अज्ञानों में से कोई भी मति अज्ञान दोनों इन्द्रिय अनिन्द्रियरूपं निमित्तों से उत्पन्न नहीं हुआ है। ऐसा नहीं है तथापि सम्यक् पद से उनका निराकरण किया है अत: उस मतिअज्ञान का व्यवच्छेद करने के लिए पहली अवधारणा करना युक्तिपूर्ण है। यद्यपि मति अज्ञान भी इन्द्रिय और मन के निमित्त से उत्पन्न होता है परन्तु यहाँ सम्यक् ज्ञान का प्रकरण होने से उनका निराकरण किया है। अब श्री उमा स्वामी मतिज्ञान के भेदों का निरूपण करने के लिए सूत्र कहते हैं अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा-ये चार मतिज्ञान के भेद हैं अर्थात् पूर्वसूत्रानुसार इन्द्रिय और मन से ये चारों मतिज्ञान होते हैं // 15 // ___ शंका : ‘अवग्रहेहावायधारणा:' यह सूत्र किस प्रयोजन के लिए कहा गया है ? मतिज्ञान के भेदों को कहने के लिए यह सूत्र नहीं है क्योंकि मतिज्ञान के भेद तो ‘मति:स्मृति: संज्ञाचिंताभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम्' इस सूत्र द्वारा कहे जा चुके हैं, तथा इस सूत्र का यह प्रयोजन भी नहीं है, कि मतिज्ञान के अब तक नहीं
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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