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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 277 ततो नाकारणं वित्तेर्विषयोस्तीति दुर्घटम् / यं रूपस्याप्रवेद्यत्वापत्तेः कारणतां विना // 14 // संवेदनस्य नाकारणं विषय इति नियमे स्वरूपस्याप्रवेद्यत्वमकारणत्वात् तद्वद्वर्तमानानागतानामतीतानां चाऽकारणानां योगिज्ञानाविषयत्वं प्रसज्यते॥ अस्वसंवेद्यविज्ञानवादी पूर्वं निराकृतः। परोक्षज्ञानवादी चेत्यलं संकथयानया // 15 // तत: सूक्तमिदमुत्तरावधारणं परमतालंबनजन्यत्वव्यवच्छेदार्थं सूत्रे पूर्वं तु मत्यज्ञानादिनिवृत्त्यर्थं संज्ञिपंचेंद्रियजमेवेति तदेवेंद्रियानिद्रियनिमित्तमुच्यते / संज्ञिपंचेंद्रियाणां मिथ्यादृशां अत: यह सिद्ध हुआ कि ज्ञान का विषय ज्ञान का कारण नहीं है। बौद्धों का यह कहना कि "नाकारणं विषयः" -ज्ञान का जो कारण नहीं है, वह ज्ञान का विषय नहीं है। यह मन्तव्य कैसे भी घटित नहीं हो सकता है। क्योंकि, कारण बिना भी ज्ञान का स्वकीयरूप अनुभव में आ रहा है। यदि ज्ञान के कारण को ही ज्ञान का विषय माना जायेगा तो ज्ञान के स्वरूप के वेद्यत्व नहीं होने का प्रसंग आएगा जो कि बौद्धों को इष्ट नहीं है। अर्थात् बौद्धों ने ज्ञान का स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष होना स्वीकार किया है, और स्वयं ही स्व का कारण हो नहीं सकता है। “नैकं स्वस्मात् प्रजायते” // 14 // सम्वेदन का जो उत्पादक कारण नहीं है, वह सम्वेदन का विषय नहीं है। इस प्रकार बौद्धों द्वारा नियम करने पर तो ज्ञान केस्वरूप को असम्वेद्यपना प्राप्त होगा, क्योंकि ज्ञान की उत्पत्ति में ज्ञान तो स्वयं कारण नहीं होता है। यदि कारण नहीं होने पर भी ज्ञान का स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष द्वारा विषय होना मान लोगे तो उसी के समान वर्तमान, भविष्य और अतीत काल के पदार्थों को योगीज्ञान के विषय नहीं होने का प्रसंग आएगा, क्योंकि वे त्रिकालवर्ती पदार्थ योगीज्ञान के उत्पादक कारण नहीं हो सके हैं। जो कार्य की उत्पत्ति में सहायक होकर अर्थक्रिया को कर रहे हैं वे अव्यवहित पूर्वक्षण के पदार्थ तो कारण माने जाते हैं अन्य नहीं। - जो अस्वसंवेद्यवादी नैयायिक ज्ञान का स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होना नहीं कहते हैं, उनका पूर्व प्रकरणों में निराकरण कर दिया है, तथा ज्ञान को सर्वथा परोक्ष मानने वाले मीमांसक वादी के मन्तव्य का भी विशद रूप से खण्डन कर दिया है अत: ज्ञान का स्वसम्वेदन प्रत्यक्ष होने के सिद्धान्त में व्यर्थ विघ्न डालने वाले कथन करने से क्या प्रयोजन है?॥१५॥ अतः श्री विद्यानन्द आचार्य ने यह बहुत अच्छा कहा है कि "तदिन्द्रियानिन्द्रिय निमित्तम्।" इस सूत्र में अनुक्त भी दोनों एवकार उमास्वामी महाराज को अभिप्रेत है। उसमें वह मतिज्ञान इन्द्रिय अनिन्द्रियों से ही उत्पन्न होता है। __ यह विधेय दल का उत्तर अवधारण तो अन्यमति बौद्धों के मन्तव्यानुसार ज्ञान का आलम्बन विषय से उत्पन्न होने का व्यवच्छेद करने के लिए दिया गया है और वह मतिज्ञान ही इन्द्रिय अनिन्द्रियरूप निमित्तों से उत्पन्न होता है। यह पहली अवधारणा तो मतिअज्ञान, श्रुतज्ञान आदि की निवृत्ति करने के लिए है। वह मतिज्ञान संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के ही उत्पन्न होता है अत: वह मतिज्ञान ही इन्द्रिय और अनिन्द्रिय निमित्तों से उत्पन्न हुआ कहा जाता है।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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