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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 276 स्मृतिप्रत्यभिज्ञादि वा कथमसमानकालार्थपरिच्छिदिः सिद्ध्येदिति चेत्, समानसमयमेव ग्राह्यं संवेदनस्येति नियमाभावात्। अक्षज्ञानं हि स्वसमयवर्तिनमर्थं परिच्छिनत्ति स्वयोग्यताविशेषनियमाद्यथा स्मृतिरनुभूतमात्रं पूर्वमेव प्रत्यभिज्ञातीतवर्तमानपर्यायवृत्त्येकं पदं चिंता त्रिकालसाध्यसाधनव्याप्तिं स्वार्थानुमानं त्रिकालमनुमेयं श्रुतज्ञानं त्रिकालगोचरानंतव्यंजनपर्यायात्मकान् भावान् अवधिरतीतवर्तमानानागतं च रूपिद्रव्यं मन:पर्ययोऽतीतानागतान् वर्तमानांश्चार्थान् परमनोगतान्, केवलं सर्वद्रव्यपर्यायानिति वक्ष्यतेग्रतः॥ ज्ञान के उत्पादक कारण तो पूर्वक्षणवर्ती पदार्थ ही हो सकते हैं परन्तु ज्ञान का विषय समानकालवर्ती ही है। शंका : समान समय वाले पदार्थों को ही यदि ज्ञान का विषय माना जायेगा, तो योगी सर्वज्ञ के विज्ञान वर्तमान ज्ञान के असमान कालीन भूत, भविष्य पदार्थों को प्रत्यक्ष जानने वाले कैसे सिद्ध होंगे? अथवा भूत, भविष्यत्, वर्तमान, त्रिकालवर्ती पदार्थों को परोक्ष जानने वाला आगमजन्य ज्ञान कैसे सध सकेगा? तथा स्मरण, प्रत्यभिज्ञान, व्याप्तिज्ञान आदि भूत, भविष्यकालीन पदार्थों को जानने वाले कैसे माने जावेंगे? समाधान : समान समयवर्ती ही पदार्थ सम्वेदन के द्वारा ग्राह्य होते हैं, ऐसा नियम हम नहीं करते हैं, क्योंकि अपने आवरण कर्मों की क्षयोपशमरूप योग्यता के विशेष नियम से ऐसा व्यवस्थित होने से इन्द्रियजन्यज्ञान तो नियम से अपने समय में ही रहने वाले अर्थ को जानता है। अर्थात् इन्द्रियजन्यज्ञान भूत, भविष्यकाल के अर्थों को नहीं जान सकते हैं अतः चक्षु, रसना आदि से वर्तमानकाल में वर्त रहे, रूप, रस, रूपवान, रसवान आदि पदार्थ ही जाने जाते हैं। जिस प्रकार कि स्मरणज्ञान अपनी क्षयोपशमरूप योग्यता के अनुसार पूर्व में अनुभूत केवल भूतकाल के अर्थों को जानता है, तथा प्रत्यभिज्ञान भूतं और वर्तमान काल की पर्यायों में स्थित एक पदार्थ को जानता है। अथवा वर्तमानकाल के सादृश्य, दूरपन, स्थूलपन आदि अर्थों को भी जानता है। तथा चिंताज्ञान तीनों काल के साध्य और साधनों का उपसंहार कर अविनाभाव संबंध को जान लेता है। एवं स्वार्थानुमान कालत्रयवर्ती अनुमेय पदार्थों को परोक्षरूप से जान लेता है। इसी प्रकार आप्त वाक्यजन्य श्रुतज्ञान या अनक्षरात्मक अवाच्य श्रुतज्ञान तो अत्यन्तपरोक्ष भी तीन काल में वर्त रहे संख्यात असंख्यात अनन्त व्यंजनपर्यायस्वरूप भावों को अविशद रूप से जान लेता है। अवधिज्ञान अपने योग्य भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों काल के रूपीद्रव्यों को प्रत्यक्षरूप से विषय कर लेता है और मन:पर्ययज्ञान तो अपने और पराये मन में स्थित अतीत, अनागत, वर्तमान काल के अर्थों को विशदरूप से जानता है। तथा सर्वोत्तम केवलज्ञान त्रिकालवर्ती सम्पूर्ण द्रव्य और पर्यायों को अतिविशदरूप से जानता है। इस प्रकरण का श्री उमा स्वामी महाराज अग्रिम सूत्र द्वारा स्पष्ट निरूपण करेंगे।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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