________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 275 प्रत्येकं परमाणूनामालंबनत्वे न ते बुद्धिगोचरा इति ग्रंथविरोधात्। तर्हि योधिपतिसमनंतरालंबनत्वेनाजनको निमित्तमात्रत्वेन जनकः स्वाकारार्पणक्षमः स्वसंवेदनस्य ग्राह्योस्त्वव्यभिचारादिति चेन्न, तस्यासंभवात् / न हि संवेदनस्याधिपत्यादिव्यतिरिक्तोन्यः प्रत्ययोस्ति। तत्सामान्यमस्तीति चेत् न, तस्यावस्तुत्वेनोपगमाजनकत्वविरोधात् / वस्तुत्वे तस्य ततो(तरत्वे तदेव ग्राह्यं स्यान्न पुनरर्थो नीलादिर्हेतुत्वसामान्यजनकनीलाद्यर्थो ग्राह्यः संवेदनस्येति ब्रुवाणः कथं जनक एव ग्राह्य इति व्यवस्थापयेत् / ततो न पूर्वकालोर्थः संविदो ग्राह्यः। किं तर्हि समानसमय एवेति प्रतिपत्तव्यं / नन्वेवं योगिविज्ञानं श्रुतज्ञानं में कहा गया है। तथा बौद्ध अनेक परमाणुओं में से एक न्यारी परमाणु को यदि ज्ञान का आलम्बन कारण मानेंगे तो वे अलग-अलग परमाणु बुद्धि के विषय नहीं हैं।' इस ग्रन्थ से स्वयं बौद्धों को विरोध होगा अतः स्वाकार को अर्पण करने केलिए समर्थ रहना यह विशेषण व्यर्थ हो जाता है। ___ बौद्ध कहते हैं कि तब तो यों कह देना अच्छा है कि जो पदार्थ ज्ञान के अधिपतित्व द्वारा और अव्यवहित पूर्ववर्तीद्वारा तथा विषयभूत आलम्बन द्वारा ज्ञान का जनक नहीं है, किन्तु ज्ञान का केवल निमित्त कारण बन जाने से जनक हो रहा है, और अपने आकार को ज्ञान के प्रति अर्पण करने के लिए तैयार है, वह पदार्थ संवेदन द्वारा ग्राह्य हो जाता है। ऐसा नियम करने में कोई व्यभिचार दोष नहीं आता है। आचार्य कहते हैं कि उपर्युक्त कथन उचित नहीं है क्योंकि उसका ऐसा होना असम्भव है। अधिपति या समनन्तर अथवा आलम्बनपन के अतिरिक्त कोई अन्य कारण सम्वेदन को उत्पन्न कराने में सम्भव नहीं है। जो पदार्थ उन तीन रूपों से जनक नहीं है, वह पदार्थ ज्ञान का कैसे भी उत्पादक नहीं हो सकता है। फिर भी बौद्ध कहते हैं कि ज्ञान के अधिपति कारण आत्मा, इन्द्रिय आदि हैं, और ज्ञान का समनन्तर कारण तो अव्यवहित पूर्वक्षणवर्ती ज्ञान पर्याय है, जो कि उपादान कारण मानी गई है। तथा ज्ञान का आलम्बन कारण तो ज्ञेयविषय है। इन तीन के अतिरिक्त भी उन तीनों में रहने वाला एक सामान्य पदार्थ है। वह ज्ञान का जनक बन जाएगा। ग्रन्थकार कहते हैं कि ऐसा कहना उचित नहीं है, क्योंकि बौद्धों ने सामान्य को अवस्तुभूत स्वीकार किया है। जो वस्तुभूत नहीं है उसको उत्पत्ति रूप क्रिया का जनकपना विरुद्ध है। यदि उस सामान्य को वस्तुभूत मानते हैं तो उन तीन कारणों से भिन्न अर्थान्तरभूत वह सामान्य ही ज्ञान के द्वारा ग्रहण करने योग्य होता है फिर नील आदि स्वलक्षणरूप अर्थ तो ज्ञान का ग्राह्य नहीं हो सका। इस पर भी बौद्ध यदि इस प्रकार कहे कि ज्ञान का जनक सामान्य है और हेतुत्वरूप सामान्य का जनक नीलादिक अर्थ है, जो कि सम्वेदन का ग्राह्य हो जाता है तब तो बौद्ध ज्ञान का जनक पदार्थ ही ग्राह्य होता है, इस बात की कैसे व्यवस्था करा सकेगा ? अतः पूर्वकाल में स्थित अर्थ ज्ञान के द्वारा ग्राह्य नहीं हो सकता है। शंका : कौन से समय का पदार्थ ज्ञान का ग्राह्य है? समाधान : ज्ञान के समान काल में रहने वाला ही पदार्थ ग्राह्य होता है, यह समझ लेना चाहिए।