SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 286
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 281 प्रतिभासमात्रस्य परमब्रह्मणोऽपि हि सत्यत्वं सर्वदा बाधविनिर्मुक्तत्वमिष्टमन्यथा तदव्यवस्थानात् तच्चार्थभेदज्ञानस्यापि स्पष्टस्यानुभूयते। प्रतिनियतकालसंवेदनेन। कथमस्मदादेस्तत्र सर्वदा बाधरहितत्वं सिद्ध्येदिति। चेत् प्रतिभासमात्रे कथं / सकृदपि बाधानुपलंभनात्सर्वदा बाधासंभवनानुपपत्तेरितिचेत् भेदप्रतिभासेपि तत एव / चंद्रद्वयादिवेदने भेदप्रतिभासस्य बाधोपलंभादन्यत्रापि बाधसंभवनान्न भेदप्रतिभासे सदा बाधवैधुर्यं सिद्ध्यतीति चेत्तर्हि वकुलतिलकादिवेदने दूरादभेदप्रतिभासस्य बाधसहितस्योपलंभनादभेदप्रतिभासेपि सदा चिन्मात्र की विधि को निरूपण करने वाला एक ही ज्ञान वास्तविक है क्योंकि वही सर्वत्र प्रतिभासमात्र है। प्रत्यक्ष, परोक्ष अथवा अत्यन्तपरोक्ष मिलाकर ये दो तीन ज्ञान नहीं हो सकते हैं इस प्रकार ब्रह्म अद्वैतवादियों का कहना भी उचित नहीं है क्योंकि अर्थों के इन्द्रियों से उत्पन्न भेदज्ञान की यथार्थरूप से प्रतीति होती है। (प्रत्युत केवल अभेद को ही ग्रहण करने वाले चिन्मात्र का अनुभव नहीं होता है) तथा विशेष वस्तुओं को ग्रहण करने वाले और बाधाओं से रहित विशदस्वरूप भेदज्ञान का सदा अनुभव होता है॥६-७॥ ब्रह्माद्वैतवादियों के द्वारा स्वीकृत केवल प्रतिभासरूप परमब्रह्म का भी सत्यपना सदा स्पष्ट रूप से अनुपयुक्त होने से बाधाओं से विरहित ही इष्ट मानना होगा। अन्यथा (निर्बाधस्वरूप सत्य हुए बिना) उस प्रतिभासस्वरूप परमब्रह्म की व्यवस्था नहीं हो सकेगी किन्तु वह सत्यपने का प्राण बाधारहितपना पदार्थों के स्पष्ट भेदज्ञान के भी अनुभूत हो रहे हैं। प्रत्येक ज्ञान के लिए नियतकाल में उत्पन्न विशेषज्ञानों के द्वारा घट पट आदि के विशेष ज्ञानों का स्पष्ट अनुभव हो रहा है। इन सत्यज्ञानों में कभी बाधा नहीं आती है। - शंका : यहाँ अद्वैतवादी कहता है कि उन भेदज्ञानों में सदा बाधारहितपना है, यह हम लोगों के द्वारा कैसे जाना जा सकता है? इन भेदज्ञानों में कभी बाधायें न हुई हैं और न होंगी। इस बात को अल्पज्ञ जीव जान नहीं सकते हैं। समाधान : स्याद्वादी कहते हैं कि तुम्हारे शुद्ध प्रतिभास मात्र या उसके ज्ञान में सदा बाधारहितपना तुम अत्यल्पज्ञों के द्वारा कैसे जाना जा सकेगा? शुद्ध चिन्मात्र में एक बार भी बाधा नहीं दीखती है। यदि कहो कि शुद्ध चिन्मात्र में सदैव बाधाओं की सम्भावना नहीं है, तो जिस प्रकार शुद्ध चिन्मात्र में सदैव बाधाओं की संभावना नहीं है उसी प्रकार भेद रूप ज्ञानों में भी एक बार भी बाधाओं की उपलब्धि नहीं होती है ऐसी बाधाओं की असम्भव की सिद्धि भेद प्रतिभासों में भी समझ लेना चाहिए। इस विषय में हमारा तुम्हारा प्रश्नोत्तर उठाना, देना एकसा पड़ता है। अर्थात् जैसा तुम कहते हो वैसा हम भी कह सकते हैं। - ब्रह्मअद्वैतवादी कहते हैं कि एक चन्द्रमा में दो चन्द्रमा के ज्ञान में भेद के प्रतिभासों की बाधाएँ उपस्थित देखी जाती हैं। उसी प्रकार अन्य घट, पट आदि के भेद प्रतिभासों में भी बाधाओं की सम्भावना है, इसलिए जैनों के भेदप्रतिभास में सदा बाधारहितपना सिद्ध नहीं होता है। . इसके प्रत्युत्तर में जैन कहते हैं कि मौलश्री, तिलक आदि वृक्षों के ज्ञान में दूर से हुए अभेद प्रतिभास के बाधासहितपन की उपलब्धि होती है अत: तुम्हारे प्रतिभासमात्ररूप अभेद प्रतिभास में भी सर्वदा
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy