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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 270 निःशेषवर्तमानार्थो न स्वजन्येन सर्ववित्। संवेदनेन संवेद्यः समानक्षणवर्तिना // 9 // स्वार्थजन्यमिदं ज्ञानं सत्यज्ञानत्वतोन्यथा। विपर्यासादिवत्तस्य सत्यत्वानुपपत्तितः॥१०॥ इत्यप्यशेषविद्बोधैरनैकांतिकमीरितं / साधनं न ततो ज्ञानमर्थजन्यमिति स्थितम् // 11 // नन्वेवमालोकजन्यत्वमपि ज्ञानस्य चाक्षुषस्य न स्यादिष्टं च तदन्यथानुपपत्तेः। परप्रत्ययः पुनरालोकलिंगादिरिति वचनात् / तदन्वयव्यतिरेकानुविधानात्तस्य तजन्यत्वेऽर्थजन्यत्वमपि सत्यस्यास्मदादिज्ञानस्यास्तु विशेषाभावात्। न चैवं संशयादिज्ञानमंतरेण विरुध्यते तस्य सत्यज्ञानत्वाभावात् / मतानुसार ज्ञान की उत्पत्ति हो जाने पर वे कारण अर्थ नष्ट हो जाते हैं। ऐसी दशा में बौद्धों के यहाँ कोई भी विद्यमान पदार्थ स्वजन्यज्ञान द्वारा वेद्य नहीं हो सकता। अर्थ के काल में स्वजन्यज्ञान नहीं और ज्ञानकाल में अर्थ नहीं रहता है। तथा यहाँ स्वसंवेदन प्रत्यक्ष भी नहीं बन सकेगा // 8-9 // ... यह प्रत्यक्षज्ञान अपने विषयभूत आलम्बन अर्थजन्य है-सत्यज्ञान होने से। अन्यथा (प्रत्यक्षंज्ञान को अर्थजन्य न मानने पर) विपर्यय, संशय आदि कुज्ञानों के समान उस प्रत्यक्ष ज्ञान का सत्यपना नहीं बन सकता। इस प्रकार दूसरे अनुमान का हेतु भी सर्वज्ञज्ञानों से व्यभिचार दोषयुक्त है, ऐसा समझना चाहिए। अर्थात् त्रिलोक त्रिकालवर्ती पदार्थों को जानने वाले सर्वज्ञ के ज्ञान अपने आलम्बन अखिल विषयों से जन्य नहीं होते हुए भी सत्यज्ञान हैं। जो कार्य के आत्मलाभ में कुछ व्यापार करता है, वह कारण होता है। भूत, भविष्य की पर्यायें जब ज्ञानकाल में विद्यमान ही नहीं हैं, तो वे कार्य की उत्पत्ति में सहायता नहीं कर सकती हैं, तथा ज्ञान को अर्थजन्य मानने में अन्वयव्यभिचार और व्यतिरेक व्यभिचार दोष आते हैं, अतः विषयभूत अर्थ से जन्य ज्ञान नहीं है, यह सिद्धान्त स्थित है। इस प्रकार अवधारण करने पर बौद्धमन्तव्य का व्यवच्छेद हो जाता है॥१०-११॥ अर्थात् ज्ञान की उत्पत्ति पदार्थों से नहीं है अपितु मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न इन्द्रियजन्य है। बौद्ध कहता है-इस प्रकार ज्ञान की अर्थजन्यता का खण्डन करने पर चाक्षुषं ज्ञान की आलोकजन्यता भी इष्ट नहीं होगी परन्तु नैयायिकों और वैशेषिकों ने अन्यथानुपपत्ति से ज्ञान को आलोक से जन्य अभीष्ट किया है (ज्ञेय अर्थ के साथ तेजस आलोक का सम्बन्ध हुए बिना चक्षुइन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष की उत्पत्ति नहीं हो सकती है), तथा ग्रन्थों में भी कहा है कि “आलोक, लिङ्ग, शब्द आदि भी ज्ञान की उत्पत्ति के कारण हैं।" यदि आलोक के साथ उस ज्ञान का अन्वयव्यतिरेक अनुविधान है, व चाक्षुषप्रत्यक्ष का उस आलोक से जन्यपना मानोगे, तब तो अर्थजन्यपना भी हम लोगों के सत्यज्ञानों के हो सकता है। ज्ञान के साथ अन्वयव्यतिरेक के अनुविधान की अपेक्षा आलोक और अर्थ में कोई अन्तर नहीं है। ___ इस प्रकार अर्थ के बिना भी उत्पन्न संशय, विपर्यय आदि ज्ञान देखे जाते हैं। यह विरुद्ध नहीं है, क्योंकि उन संशय आदि को सत्यज्ञानपन का अभाव है तथा हेतु का सर्वज्ञज्ञान के साथ व्यभिचार दोष भी नहीं आता है, क्योंकि हमने हम, तुम आदि लौकिक जीवों के सम्यग्ज्ञान का सत्यज्ञानपना हेतु माना है। सर्वज्ञ का ज्ञान हम सरीखे व्यवहारीजनों से विलक्षण है अतः सर्वज्ञों का ज्ञान अर्थजन्य नहीं है। उन महान्
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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