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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 271 नापि सर्वविद्वोधैरनैकांतिकत्वमस्मदादिसत्यज्ञानत्वस्य हेतुत्वात्। अस्मदादिविलक्षणानां तु सर्वविदां ज्ञानं चार्थाजन्यं निश्चित्यास्मदादिज्ञानेजन्यत्वशंकायां नक्तंचराणां मार्जारादीनामंजनादिसंस्कृतचक्षुषां वास्मद्विजातीयानामालोकाजन्यत्वमुपलभ्यास्मदादीनामपि नार्थवेदनस्यालोकाजन्यत्वं शंकनीयमिति कश्चित् तं प्रत्याह;आलोकेनापि जन्यत्वे नालंबनतया विदः। किंत्विंद्रियबलाधानमात्रत्वेनानुमन्यते // 12 // तथार्थजन्यतापीष्टा कालाकाशादितत्त्ववत् / सालंबनतया त्वर्थो जनकः प्रतिषिध्यते // 13 // इदमिह संप्रधार्य किमस्मदादिसत्यज्ञानत्वेनालोको निमित्तमात्रं चाक्षुषज्ञानस्येति प्रतिपाद्यते कालाकाशादिवत् आहोस्विदालंबनत्वेनेति ? प्रथमकल्पनायां न किंचिदनिष्टं द्वितीयकल्पना तु न युक्ता पुरुषों के ज्ञान में अर्थ से अजन्यपने का निश्चय करके हम लोगों के ज्ञानों में भी अर्थ से नहीं उत्पन्न होने की शंका करने पर तो रात्रि में यथेच्छ विचरने वाले बिल्ली, सिंह, उलूक आदि पशु-पक्षियों या अंजन, मंत्र, पिशाच आदि कारणों से संस्कारयुक्त चक्षुओं वाले मनुष्यों, जो कि हम लोगों से भिन्न जाति वाले हैं, उन जीवों के चाक्षुष प्रत्यक्ष को आलोक से अजन्यपना देखकर अस्मत् आदि के भी अर्थप्रत्यक्ष को आलोक से अजन्यपना सम्भव है, ऐसी शंका भी नहीं करनी चाहिए क्योंकि, वह सर्वज्ञ हम लोगों से अतिशययुक्त ज्ञान का धारी है। इस प्रकार कोई बौद्ध वादी कह रहा है। इसके समाधान में आचार्य कहते हैं__ आलोक द्वारा भी ज्ञान का जन्यपना मानने पर आलम्बनरूप से आलोक को ज्ञान के प्रति कारणता नहीं है। किन्तु कतिपय चक्षुइन्द्रियों को बल प्राप्त करा देने मात्र से काल, आकाश आदि तत्त्वों के समान आलोक को भी निमित्त माना जा सकता है। तथा उसी प्रकार बलाधायकरूप से ज्ञान में अर्थजन्यपना भी इष्ट कर लिया जाता है। प्रमेयत्वगुण का योग होने से अर्थों का अपने-अपने काल में सद्भाव रहना मात्र ज्ञान का बलाधायक बन सकता है किन्तु सालम्बनरूप से अर्थ की जनकता निषेध की गई है। अर्थात्-ज्ञान का ज्ञेय के साथ विषयविषयी भाव के अतिरिक्त कोई कार्यकारण आधार आधेयभाव सम्बन्ध नहीं है॥१२१३॥ यहाँ यह विचार कर निर्णय करने योग्य है कि हम लौकिक जीवों के सत्यज्ञान के द्वारा आलोक चाक्षुष प्रत्यक्ष का काल, आकाश आदि के समान केवल निमित्त कारण है अथवा आलोक को चक्षु इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष का आलम्बनरूप कारण है? प्रथम पक्ष की कल्पना करने पर तो हम जैनों को कोई अनिष्ट नहीं है अर्थात् सम्पूर्ण कार्यों में जैसे काल, आकाश आदि पदार्थ अप्रेरक होकर निमित्तकारण हैं, वैसे ही मनुष्य आदि के चाक्षुष ज्ञान का आलोक भी सामान्य निमित्त है। द्वितीय पक्ष की कल्पना करना युक्तिपूर्ण नहीं है, क्योंकि वह प्रतीतियों के विरुद्ध है। मार्जार, व्याघ्र आदि जीवों के चाक्षुष प्रत्यक्ष में आलोक कारण नहीं है। मन्द तेज को धारने वाली चक्षुओं से युक्त मनुष्य आदि को रूप के ज्ञान की उत्पत्ति करने में चक्षु का बलाधानरूप करके आलोक कारण प्रतीत हो रहा है अर्थात् हम सरीखे कुछ जीवों की चक्षु इन्द्रियाँ रूप के ज्ञान को तब उत्पन्न करती
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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