________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 269 'कुतः पुनरवधारणादन्यमतच्छित्कुतो वा मत्यज्ञानं श्रुतादीनि च व्यवच्छिन्नानीत्याह;ध्वस्तं तत्रार्थजन्यत्वमुत्तरादवधारणात् / मत्यज्ञानश्रुतादीनि निरस्तानि तु पूर्वतः // 7 // अत्रार्थजन्यमेव विज्ञानमनुमानात्सिद्धं नार्थाजन्यं यतस्तद्व्यवच्छेदार्थमुत्तरावधारणं स्यादिति मन्यमानस्यानुमानमुपन्यस्य दूषयन्नाह;स्वजन्यज्ञानसंवेद्योर्थः प्रमेयत्वतो ननु। यथानिंद्रियमित्येके तदसद्व्यभिचारतः॥८॥ है, अन्य ज्ञान नहीं // 6 // अर्थात् विद्यानन्द आचार्य ने इस सूत्र का एक विशिष्ट अर्थ किया है जो पूज्यपाद आदि पूर्वाचार्यों ने नहीं किया है। विद्यानन्द आचार्य ने इस सूत्र के दो अर्थ किए हैं; एक अर्थ सामान्य से मतिज्ञान-उत्पत्ति में इन्द्रियाँ मन निमित्त होते हैं। यह अर्थ किया है। और दूसरा अर्थ किया है कि अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ज्ञान इन्द्रिय और मन के निमित्त से होते हैं और और स्मृति, संज्ञा, चिन्ता, अभिनिबोध ये मन के निमित्त से होते हैं। तथा तत् शब्द से यह भी सूचित किया है कि मतिज्ञान ही इनसे होता है, अन्य (ज्ञान) नहीं। ___शङ्का : पूर्व कारिका में कथित अन्य मतों का निरास कौनसी अवधारणा से होता है? तथा किस अवधारणा के करने से मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, कुमति, कुश्रुत, विभंग ज्ञान, मनः पर्यय आदि ज्ञानों का व्यवच्छेद होता है? इस प्रकार प्रश्न होने पर आचार्य समाधान करते हैं-मतिज्ञान इन्द्रिय और मनसे ही उत्पन्न होता है, ऐसी अवधारणा करने से बौद्धों द्वारा स्वीकृत अर्थजन्य (ज्ञान अर्थ से उत्पन्न होता है इस मान्यता) का खण्डन किया है। अर्थात्-मतिज्ञान इन्द्रिय और अनिन्द्रिय से ही उत्पन्न हुआ है, अन्य विषयरूप अर्थ से जन्य नहीं। तथा प्रथम अवधारणा से पहले, दूसरे, तीसरे गुणस्थानों में होने वाले मतिअज्ञान और चौथे आदि गुणस्थानों में होने वाला श्रुतज्ञान या अवधिज्ञान तथा छठे आदि में होने वाला मन:पर्ययज्ञान एवं तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानों में या सिद्धपरमेष्ठियों के केवलज्ञान का अथवा पहले दूसरे गुणस्थान के कुश्रुत, विभंगज्ञानों का निवारण कर दिया गया है अर्थात् इन्द्रिय, अनिन्द्रिय दोनों से उत्पन्न होने वाला एक मतिज्ञान ही है, अन्य नहीं // 7 // जो ज्ञान इन्द्रिय और मन के निमित्त से उत्पन्न होता है, वह मतिज्ञान ही है अन्य श्रुत आदि नहीं और सम्यग्ज्ञान का प्रकरण होने से मत्यज्ञान का निराकरण हो जाता है। लोक में सर्व विज्ञान अर्थजन्य ही है यह बात अनुमान से सिद्ध है। अत: कोई भी यथार्थज्ञान अर्थ से अजन्य नहीं है, जिससे कि उस अर्थजन्यपन का निषेध करने के लिए उत्तर अवधारण किया जाय, इस प्रकार मानने वाले बौद्धों के अनुमान का उपकथन कर उसे दूषित करते हुए आचार्य कहते हैं - . . अर्थजन्य ज्ञान का खण्डन : बौद्ध कहते हैं कि अर्थ अपने से उत्पन्न हुए ज्ञान द्वारा जानने योग्य है-प्रमेय होने से, जैसे कि मन / अर्थात्-मन, इन्द्रिय को मन इन्द्रियजन्य अनुमान द्वारा ही जाना जाता है। अथवा क्षयोपशम को क्षयोपशमजन्य ज्ञान द्वारा ही जाना जाता है। परन्तु जैनाचार्य कहते हैं कि उनका यह कहना प्रशंसनीय नहीं है व्यभिचारदोष युक्त है, क्योंकि वर्तमान काल के सम्पूर्ण अर्थ स्वयं अपने से उत्पन्न हुए ज्ञान द्वारा नहीं जाने जाते हैं। जानने योग्य समानक्षणवर्ती संवेदन के द्वारा वह अर्थ नहीं जाना जा सकता है। अर्थात्-क्षणिकवादियों के