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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 262 नन्वेवमप्यर्थापत्तिः प्रमाणांतरमप्रत्यक्षत्वात् परोक्षभेदेषूक्तेष्वनंतर्भावात्। प्रमाणषट्कविज्ञातस्यार्थस्यान्यथाभवनयुक्तस्य सामर्थ्याददृष्टान्यवस्तुकल्पने अर्थापत्तिव्यवहारात् / तदुक्तं / “प्रमाणषट्कविज्ञातो यत्रार्थोनन्यथा भवेत्। अदृष्टं कल्पयेदन्यं सार्थापत्तिरुदाहृता॥" प्रत्यक्षपूर्विका ह्यापत्तिः प्रत्यक्षविज्ञातादर्थादन्यथा दृष्टेर्थे प्रतिपत्तिर्यथा रात्रिभोजी देवदत्तोयं दिवाभोजनरहितत्वे चिरंजीवित्वे च सति स्तनपीनांगत्वान्यथानुपपत्तेरिति, अनुमानपूर्व्विका वानुमानविज्ञातादर्थाद्यथागमन शक्तिमानादित्यादिर्गत्यन्यथानुपपत्तेरिति / प्रश्न : अभिनिबोध क्या है? उत्तर : अभिनिबोध अनिन्द्रिय द्वारा भी अपने विषय में अभिमुख होकर नियमित अर्थ को जानता है। इस प्रकार 'इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं' अथवा 'अणिंदइन्दियज' इन वाक्यों के योगविभागकर वाक्यभेद कर देने से उक्त अर्थ निकल जाता है। शंका : यह अर्थ कैसे निकलता है? उत्तर : मनरूप अनिन्द्रिय से उत्पन्न हुआ आभिनिबोधिक तो अनिन्द्रिय से सहकृत लिंग से उत्पन्न हुआ है और नियमयुक्त साध्य के अभिमुख ज्ञान है इस प्रकार व्याख्यान किया गया है। भावार्थ : इन्द्रिय और अनिन्द्रिय से मतिज्ञान उत्पन्न होता है। इस पहले वाक्य के द्वारा अवग्रह आदि गृहीत हो जाते हैं और अनिन्द्रिय से मतिज्ञान होता है। इस दूसरे वाक्य में लिंग से सहकृतपना होने से अभिनिबोध द्वारा स्वार्थानुमान का संग्रह हो जाता है। मीमांसकों का कहना है कि इस प्रकार अर्थापत्ति नामका भी एक पृथक् प्रमाण मानना चाहिए क्योंकि वह अविशद होने से प्रत्यक्षप्रमाण तो नहीं है और परोक्ष प्रमाण के कहे हुए मति, स्मृति, संज्ञा, चिंता, अभिनिबोध, आगम इन भेदों में उस अर्थापत्ति का अंतर्भाव भी नहीं होता है। तथा प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शाब्द, अर्थापत्ति अभाव इन छह प्रमाणों से ज्ञान अर्थ का अन्यथा भवन् (उस अदृष्ट के बिना नहीं होने) से युक्त अर्थ के सामर्थ्य से अदृष्ट दूसरी वस्तु की कल्पना में अर्थापत्ति प्रमाण का व्यवहार होता है। . मीमांसक ग्रन्थों में भी कहा गया है कि प्रत्यक्ष आदि छह प्रमाणों में से प्रमाण के द्वारा ज्ञात अर्थ जहाँ अनन्यथाभूत है उस दूसरे अदृष्टअर्थ की जिस प्रमाण से कल्पना कराई जाती है, वह अर्थापत्ति प्रमाण कहा गया है अर्थात् अर्थापत्ति प्रमाण से भी लौकिक व्यवहार होता है। __प्रत्यक्ष ज्ञान से ज्ञात और अविनाभूत अर्थ के द्वारा अदृष्ट अर्थ में प्रतिपत्ति होना ही प्रत्यक्षपूर्वक अर्थापत्ति है। जैसे देवदत्त अवश्य रात में भोजन करता है क्योंकि दिन में भोजन नहीं करने वाला और अधिक काल तक जीवित रहने वाला यह देवदत्त स्थूलस्तन सहित शरीर वाला अन्यथा नहीं हो सकता! अनुमान प्रमाणों से ज्ञात अर्थ से अदृष्ट अर्थ को जान लेना अनुमान पूर्विका अर्थापत्ति है। जैसे-सूर्य, चन्द्रमा आदि पदार्थ गमन शक्ति से युक्त हैं क्योंकि देश से देशान्तर गमनरूप गति होना उनमें गमन शक्ति के बिना नहीं बन सकता है। यह अनुमान पूर्विका अन्यथानुपपत्ति ही है।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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