________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 261 इंद्रियाणींद्रियार्थाभिमुखो बोधो न तु स्मृतः / नियतोक्षमनोभ्यां यः केवलो न तु लिंगजः॥३९॥ इंद्रियानिंद्रियाभ्यां नियमितः कृतः स्वविषयाभिमुखो बोधोभिनिबोध: प्रसिद्धो न पुनरनिंद्रियसहकारिणा लिंगेन लिंगिनियमितः केवल एव चिंतापर्यंतस्याभिनिबोधत्वाभावप्रसंगात्। तथा च सिद्धांतविरोधोऽशक्यः परिहर्तुमित्यत्रोच्यतेसत्यं स्वार्थानुमानं तु विना यच्छब्दयोजनात् / तन्मानांतरतां मागादिति व्याख्यायते तथा // 391 // न हि लिंगज एव बोधोभिनिबोध इति व्याचक्ष्महे। किं तर्हि। लिंगजो बोधः शब्दयोजनरहितोभिनिबोध एवेति तस्य प्रमाणांतरत्वनिवृत्तिः कृता भवति सिद्धांतश्च संगृहीतः स्यात् / न हींद्रियानिंद्रियाभ्यामेव स्वविषयेभिमुखो नियमितो बोधोभिनिबोध इति सिद्धांतोस्ति स्मृत्यादेस्तद्भावविरोधात्। किं तर्हि। सोनिंद्रियेणापि वाक्यभेदात् / कथं अनिंद्रियजन्याभिनिबोधिकमनिंद्रियजाभिमुखनियमितबोधनमिति व्याख्यानात् / मतिज्ञान है। अवग्रह, ईहा, अवाय, धारणा, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क ये सभी ज्ञान इन्द्रिय अथवा मन से उत्पन्न हुए होने के कारण मतिज्ञान माने गये हैं, फिर अकेले अनुमान को ही अभिनिबोध क्यों कहते हैं? // 390 // ____ इन्द्रिय और अनिन्द्रिय से नियमितकृत तथा अपने विषय की ओर अभिमुख ज्ञान अभिनिबोध नाम से प्रसिद्ध है। किन्तु फिर मन को ही सहकारी कारण मानकर ज्ञापक हेतु के द्वारा साध्य के साथ नियमित केवल अनुमान ही अभिनिबोध नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अवग्रह आदिक तथा स्मृति, प्रत्यभिज्ञान तर्कपर्यन्त ज्ञानों को अभिनिबोधपन के अभाव का प्रसंग आयेगा, और ऐसा होने पर आप्तोपज्ञ सिद्धान्त के साथ विरोध का परिहार नहीं किया जा सकता है। - उत्तर : यह कहना सत्य है, परन्तु शब्द की योजना के बिना जो हेतुजन्य स्वार्थानुमान होता है वह * मतिज्ञान के सिवाय दूसरे श्रुत, अवधि आदि प्रमाणपन को प्राप्त न होवे, अत: इस प्रकार व्याख्यान कर दिया गया है। अर्थात् शब्द की योजना से सहित परार्थानुमान श्रुतज्ञान हो सकता है, परन्तु अर्थ से अर्थान्तर का ज्ञान नहीं करने वाला स्वार्थानुमान तो अभिनिबोध (मतिज्ञान) ही है // 391 // गोमट्टसार आदि ग्रन्थों में अभिनिबोध को मतिज्ञान कहा है। ज्ञापक हेतु से ही उत्पन्न हुआ ज्ञान अभिनिबोध होता है। इस प्रकार एवकार लगा कर हम नहीं कहते हैं। तो क्या कहते हैं? वाचक शब्दों की योजना से रहित लिंगजन्य ज्ञान है, वह अभिनिबोध है। उस लिंगजन्य ज्ञान को श्रुतज्ञान आदि अन्य प्रमाणपन हो जाने की निवृत्ति कर दी गई है तथा ऐसा कहने पर जैन सिद्धान्त का संग्रह भी कर लिया गया है। केवल इन्द्रियों और अनिन्द्रियों के द्वारा अपने विषय (स्पर्श, रस, गंध, वर्ण, शब्द और सुख, ज्ञान, वेदना आदि विषयों) में अभिमुख नियमप्राप्त बोध ही अभिनिबोध है, यह जैन सिद्धान्त नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर तो स्मृति, तर्क, संज्ञा इन ज्ञानों को उस अभिनिबोधत्व को सद्भाव का विरोध हो जायेगा। अर्थात्-इन्द्रियों और अनिन्द्रिय से नियमित अभिमुख विषयों में एकदेश विशद जानने को ही अभिनिबोध यदि माना जाएगा तो स्मृति, संज्ञा, चिंता ज्ञानों को अभिनिबोधपना विरुद्ध हो जायेगा।