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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 21 / सैवानुमानोपमानार्थापत्त्यभावसहितागमसहिता च सम्यग्ज्ञानं तदन्यतमापायेपरिसमाप्तेरितीतरेषां / तन्मतिमात्रग्रहणादपसारितं / ततः स्मृत्यादीनां सम्यग्ज्ञानतावगमात् तथावधारणाविरोधात्। न च तासां प्रमाणत्वं विरुद्धं संवादकत्वाद् / दृष्टप्रमाणाद्गृहीतग्रहणादप्रमाणत्वमितिचेन, इष्टप्रमाणस्याप्यप्रमाणत्वप्रसंगादिति चेतयिष्यमाणत्वात्॥ __ श्रुता वाचात्र किं कृतमित्याह;श्रुतस्याज्ञानतामिच्छंस्तद्वाचैव निराकृतः। स्वार्थेक्षमतिवत्तस्य संविदित्वेन निर्णयात् // 21 // न हि श्रुतज्ञानमप्रमाणं क्वचिद्विसंवादादिति ब्रुवाणः स्वस्थः प्रत्यक्षादेरप्यप्रमाणत्वापत्तेः। संवादकत्वात्तस्य प्रमाणत्वे तत एव श्रुतं प्रमाणमस्तु। न हि ततोर्थं परिच्छिद्य प्रवर्तमानोर्थक्रियायां विसंवाद्यते प्रत्यक्षानुमानत इव श्रुतस्याप्रमाणतामिच्छन्नेव श्रुतवचनेन निराकृतो द्रष्टव्यः॥ अतः तीनों को प्रमाण मानना चाहिए, यह अन्य लोगों का मत है तथा अनुमान, उपमान, अर्थापत्ति, अभाव और आगम सहित अक्षमति (प्रत्यक्ष) ही सम्यग्ज्ञान है, क्योंकि इन उक्त प्रमाणों में से एक के भी अभाव से ज्ञान होने रूप प्रयोजन की परिपूर्णता नहीं हो पाती है। इस प्रकार का इतर मीमांसकों का सिद्धान्त है। इस प्रकार के सब अन्य मतियों के दर्शन सम्पूर्ण (उन) मतिज्ञानों के ग्रहण करने से दूर कर दिये जाते हैं। इस प्रकार स्मृति, तर्क आदि को सम्यग्ज्ञानपने का निर्णय हो जाने से दोनों ओर के अवधारणों का कोई विरोध नहीं आता है। उन स्मृति, आदि को प्रमाणपना विरुद्ध नहीं है क्योंकि स्मृति आदि ज्ञान संवाद कराने वाले हैं। कोई कहे कि प्रत्यक्ष प्रमाण के द्वारा गृहीत किये गये विषय का ग्रहण करने वाले होने से स्मृति, तर्क आदि को प्रमाणपना नहीं है। आचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कहना उचित नहीं है क्योंकि इससे अपने-अपने इष्ट प्रमाणों को भी अप्रमाणपने का प्रसंग आता है, जो आगे स्पष्ट किया जायेगा। श्रुत शब्द को इस सूत्र में क्यों ग्रहण किया गया है ? ऐसी जिज्ञासा होने पर आचार्य कहते हैं जो चार्वाक, बौद्ध, नास्तिक आदि श्रुतज्ञान का प्रमाणपना स्वीकार नहीं करते हैं. उन वादियों का * उस सूत्रोक्त श्रुत शब्द से खण्डन कर दिया गया है। .. इन्द्रियों से उत्पन्न हुआ प्रत्यक्षज्ञान जैसे अपने और अपने विषय के जानने में संवादी होने के कारण प्रमाणरूप माना गया है, उसी प्रकार स्व और पर पदार्थ के जानने में संवादीपन होने के कारण श्रुतज्ञान का भी प्रमाणरूप से निर्णय होता है॥२१॥ विसंवादी होने से श्रुतज्ञान अप्रमाण है। इस प्रकार कहने वाला वादी स्वस्थ नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर कहीं-कहीं विसंवाद हो जाने से प्रत्यक्षादि सभी ज्ञानों में अप्रमाणत्व का प्रंसग आयेगा और संवादकत्व होने से प्रत्यक्ष ज्ञान को प्रमाण मानने से श्रुतज्ञान को भी प्रमाण मानना पड़ेगा, क्योंकि उस श्रुतज्ञान से अर्थ को जानकर प्रवर्तने वाला पुरुष अर्थक्रिया में विसंवादी नहीं होता है, जैसे प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण से अर्थ को जानकर प्रवृत्ति करने वाले पुरुष के विसंवाद नहीं होता है। यहाँ सूत्र में श्रुतवचन से श्रुतज्ञान की अप्रमाणता को चाहने वाले पुरुष का निराकरण कर दिया है-ऐसा विचार कर लेना चाहिए, या इस विषय को स्पष्ट देख लेना चाहिए। अर्थात् श्रुतज्ञान की प्रमाणता का आगे विस्तार से कथन करेंगे उससे वा अन्य ग्रन्थों से इसे जान लेना चाहिए।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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