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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 253 इष्टः साधयितुं साध्यः स्वपरप्रतिपत्तये। इति व्याख्यानतो युक्तमभिप्रेतविशेषणं // 352 // अप्रसिद्ध तथा साध्यमित्यनेनाभिधीयते। तस्यारेका विपर्यासा व्युत्पत्तिविषयात्मता // 353 / / तस्य तद्व्यवच्छेदत्वात्सिद्धिरर्थस्य तत्त्वतः। ततो न युज्यते वक्तुं व्यस्तो हेतोरपाश्रयः॥३५४॥ संशयो ह्यनुमानेन यथा विच्छिद्यते तथा। अव्युत्पत्तिविपर्यासावन्यथा निर्णयः कथं // 355 // अव्युत्पन्नविपर्यस्तौ नाचार्यमुपसर्पतः। कौचेदेव यथा तद्वत्संशयात्मापि कश्चन // 356 // नावश्यं निर्णयाकांक्षा संदिग्धस्याप्यनर्थिनः। संदेहमात्रकास्थानात्स्वार्थसिद्धौ प्रवर्तनात् // 357 // जो वादी को अभीष्ट है वही अपने और दूसरे की प्रतिपत्ति के अर्थ साधने के लिए साध्य मानना चाहिए, इस प्रकार व्याख्यान करने से साध्य का ‘इष्ट' विशेषण लगाना युक्त है // 352 // वादी के द्वारा कहा गया साध्य प्रतिवादी या प्रतिपाद्य-श्रोताओं को अप्रसिद्ध होना चाहिए अत: साध्य के अप्रसिद्ध विशेषण से कहा गया है कि वह साध्य श्रोताओं के संशय, विपर्यय और अज्ञान का विषय स्वरूप है। वादी के द्वारा उस साध्य का ज्ञान करा देने पर श्रोताओं के उन संशय, विपर्यय, अज्ञानों का व्यवच्छेद हो जाने से अर्थ की यथार्थरूप से सिद्धि हो जाती है अतः यह कहना युक्त नहीं है कि तीन समारोपों में से एक ही संशय का हेतु द्वारा निराकरण होता है।३५३-३५४॥ भावार्थ : साध्य का निर्णय हो जाने से प्रतिपाद्य के समस्त संशय, विपर्यय और अज्ञानों का निवारण हो जाता है। जिस प्रकार अनुमानज्ञान के द्वारा संशय का विच्छेद किया जाता है उसी प्रकार अव्युत्पत्ति और विपर्ययका भी विच्छेद किया जाता है। अन्यथा संशय के दूर हो जाने पर भी विपर्यय और अज्ञान दूर नहीं होते हैं, अनिर्णय वा विपरीतता बनी रहती है, तो वह निश्चित है' ऐसा कैसे कहा जा सकता है अत: प्रमाणज्ञान से तीनों समारोपों की निवृत्ति हो जाती है॥३५५॥ कोई कहता है कि जैसे कोई-कोई अज्ञानी, विपर्यय ज्ञानी वस्तु का यथार्थ निर्णय करने के लिए आचार्य के निकट नहीं जाते हैं, उन्हीं के समान कोई संशयालु पुरुष भी वस्तु का निर्णय करने के लिए गुरु के निकट जाकर नहीं पूछता है क्योंकि निःप्रयोजनी संशयालु को भी वस्तु के निर्णय करने की आवश्यकरूप से आकांक्षा नहीं होती है। संदेहमात्र में ही वह स्थित रहता है। यदि अपने किसी अर्थ की सिद्धि होती हो तब तो निर्णय कराने के लिए प्रवृत्ति करता है॥३५६-३५७।।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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