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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 254 यथाऽप्रवर्तमानस्य संदिग्धस्य प्रवर्तनम्। विधीयतेनुमानेन तथा किं न निषिध्यते // 358 // अव्युत्पन्नविपर्यस्तमनसोप्यप्रवर्तनम्। परानुग्रहवृत्तीनामुपेक्षानुपपत्तितः // 359 // अविनेयिषु माध्यस्थ्यं न चैवं प्रतिहन्यते। रागद्वेषविहीनत्वं निर्गुणेषु हि तेषु न // 360 // स्वयं माध्यस्थ्यमालंब्य गुणदोषोपदेशना। कार्या तेभ्योपि धीमद्भिस्तद्विनेयत्वसिद्धये // 361 // अव्युत्पन्नविपर्यस्ता प्रतिपाद्यत्वनिश्चये। प्रतिपाद्यः कथं नाम दुष्टोज्ञः स्वसुतो जनैः॥३६२॥ आचार्य कहते हैं कि जैसे साध्य को जानने में प्रवृत्ति नहीं करने वाले संदिग्ध पुरुष की अनुमान द्वारा निर्णीत साध्य में प्रवृत्ति करा दी जाती है वैसे विपर्यस्त मन वाले जीवों की भी अप्रवृत्ति का निषेध अनुमान द्वारा क्यों नहीं करा दिया जाता है। अर्थात्-जैसे संदिग्ध का संशय दूर करने के लिए आचार्य अनुमान के द्वारा उसके संशय को दूर करने के लिए प्रयत्न करते हैं, वैसे विपर्यय ज्ञान वाले को समझाने का प्रयत्न क्यों नहीं करते हैं क्योंकि दूसरे जीवों पर अनुग्रह करने में सर्वदा प्रवृत्त आचार्यों की अज्ञानी और विपर्यय ज्ञानी जीवों के लिए उपेक्षा नहीं हो सकती है॥३५८-३५९॥ ___ अर्थात् आचार्य, जैसे संदिग्ध जीव को यथार्थ निर्णीत विषय में प्रवर्त्ता देते हैं, उसी प्रकार अज्ञानी और मिथ्याज्ञानी को भी यथार्थ वस्तु में लगा देते हैं अत: अनुमान प्रमाण द्वारा तीनों समारोपों का व्यवच्छेद होना मानना चाहिए। इस प्रकार सर्व जीवों के प्रति अनुग्रहवान होने से अविनीतों में मध्यपना रखने का प्रतिघात भी नहीं होता है, क्योंकि उपेक्षा का अर्थ है निर्गुणी दोषी, विपर्यय ज्ञानियों में हमको रागद्वेष नहीं करना है अपितु माध्यस्थ्य भावना का अवलम्बन लेकर उनके लिए भी गुण और दोषों का उपदेश देना है क्योंकि अपना शिष्य बनाने के लिए बुद्धिमानों के द्वारा अविनीत भी प्रतिपादन (शिक्षा देने) करने के योग्य होता है। अर्थात् उन अविनीतों को भी गुणदोषों का ज्ञान कराना चाहिए। परोपकारियों का कर्तव्य है, अज्ञानियों को ज्ञानी बनाना है; कुचारित्रवालों को सच्चरित्र बनाना और अविनीतों को विनय संपत्ति पर झुकाना है॥३६०-३६१॥ यदि अव्युत्पन्न और मिथ्यादृष्टि, विपरीत ज्ञानी जीवों को प्रतिपादन नहीं करने योग्य निर्णय कर दिया जायेगा तो प्रचंड, दुष्ट और मूर्ख अपना कोई लड़का हितैषी गुरुजनों के द्वारा समझाने योग्य कैसे होगा अर्थात् नहीं होगा। यदि अज्ञानी और आग्रही जीवों के लिए उपदेश देना नहीं माना जायेगा तो माता-पिताओं के द्वारा अपने मूर्ख लड़के को भी शिक्षा नहीं दी जानी चाहिए, किन्तु सभी हितैषीजन अपने मूर्ख बालक, बालिकाओं को उपदेश देकर हितमार्ग पर लगाते ही हैं॥३६२॥
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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