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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 252 ननु नेच्छति वादीह साध्यं साधयितुं स्वयम् / प्रसिद्धस्यान्यसंवित्तिकारणापेक्ष्यवर्तनात् // 347 // प्रतिवाद्यपि तस्यैतन्निराकृतिपरत्वतः। सभ्या नोभयसिद्धान्तवेदिनोऽपक्षपातिनः // 348 // इत्ययुक्तमवक्तव्यमभिप्रेतविशेषणम् / जिज्ञासितविशेषत्वमिवान्ये संप्रचक्षते // 349 // तदसद्वादिनेष्टस्य साध्यत्वाप्रतिघातितः। स्वार्थानुमासु पक्षस्य तन्निश्शयविवेकतः // 350 // परार्थेष्वनुमानेषु परो बोधयितुं स्वयम्। किं नेष्टस्येह साध्यत्वं विशेषानभिधानतः // 351 // शंका : वादी स्वयं तो साध्य को साधने की इच्छा नहीं करता है परन्तु प्रसिद्ध पदार्थ की अन्य को संवित्ति करा देने की अपेक्षा से प्रवृत्ति करता है। प्रतिवादी भी उस साध्य के इस प्रकरण प्राप्त निराकरण को करने में तत्पर होता है। निकट में बैठे हुए सभा के सदस्य पक्षपातरहित हैं, वे वादी प्रतिवादी दोनों के सिद्धान्तों को जानने वाले नहीं हैं अतः साध्य के लक्षण में अभिप्रेत' यह विशेषण लगाना अयुक्त है एवं कहने योग्य नहीं है। साध्य इष्ट नहीं होता है जैसे कि जानने की इच्छा का विषयपना यह साध्य का विशेषण नहीं कहा जाता है। अर्थात्-वादी की अपेक्षा से यदि साध्य का इष्ट विशेषण लगाया जाता है तो प्रतिवादी की अपेक्षा से साध्य का विशेषण जिज्ञासितपना भी लगाना चाहिए, ऐसा कहना चाहिए, क्योंकि प्रतिवादी को जिसकी जिज्ञासा होगी उस विषय का प्रतिपादन वादी करता है। यदि कहो कि प्रतिवादी तो किसी तत्त्व की जिज्ञासा नहीं करता है। वह तो खण्डन करने के लिए आवेशयुक्त होकर सन्नद्ध हो रहा है, तब तो वादी की ओर से भी कुछ कहे जाना मान लिया जाए, इष्ट विशेषण लगाना व्यर्थ है ऐसा कोई कहता है॥३४७३४८-३४९॥ समाधान : आचार्य कहते हैं कि उनका यह कहना सत्य नहीं है, क्योंकि वादी द्वारा इष्ट धर्म के साध्य का प्रतिघात नहीं किया जा सकता है अर्थात् वादी अपने अभीष्ट साध्य को प्रतिवादी के सन्मुख समीचीन हेतुओं से साधता ही है। स्वार्थानुमानों में किये गये पक्ष का उस इष्ट के द्वारा निश्चय का विचार किया जाता है, जैसे धूम को देखकर अभीष्ट अग्नि का अनुमान कर लिया जाता है // 350 // ___ परार्थ-दूसरे प्रतिपाद्यों के लिए किये गये अनुमानों में तो दूसरा (प्रतिपाद्य ही) स्वयं समझाने के लिए योग्य होता है जो वादी को इष्ट है वही तो प्रतिपाद्य को समझाया जाता है अत: यहाँ स्वार्थ अनुमान परार्थअनुमान इन विशेषों का कथन नहीं करने से सामान्य से इष्ट को साध्यपना क्यों नहीं अभीष्ट किया जाता है, अर्थात् किया ही जाता है॥३५१॥
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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