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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 251 तेषां सर्वमनेकांतमिति पक्षो विरुध्यते। तत एवोभयोः सिद्धो दृष्टांतो न हि कुत्रचित् // 342 // प्रमाणबाधितत्वेन साध्याभासत्वभाषणे। सर्वस्तथेष्ट एवेह सर्वथैकांतसंगरः // 343 // तथा साध्यमभिप्रेतमित्यनेन निवार्यते। अनुक्तस्य स्वयं साध्यभावाभावः परोदितः // 344 // यथा ह्युक्तो भवेत्पक्षस्तथानुक्तोपि वादिनः। प्रस्तावादिबलात्सिद्धः सामर्थ्यादुक्त एव चेत् // 345 // स्वागमोक्तोपि किं न स्यादेव पक्षः कथंचन / तथानुक्तोपि चोक्तो वा साध्यः स्वेष्टोस्तु तात्त्विकः॥ नानिष्टोतिप्रसंगस्य परिहर्तुमशक्तितः // 346 // (षट्षम्) पूर्वपक्ष - कोई कहता है कि एकान्त में शब्द क्षण में नष्ट होते हैं क्योंकि सत्त्व हैं। इसमें दृष्टांत का अभाव है इसलिए अशक्य को भी पक्ष स्वीकार किया है फिर साध्य में शक्य विशेषण क्यों दिया गया है? इस पर जैन आचार्य कहते हैं कि तब तो उनके यहाँ दृष्टांत नहीं मिल सकने से सम्पूर्ण पदार्थ अनेक धर्मवाले हैं, इस प्रकार प्रतिज्ञा करना पक्षविरुद्ध हो जायेगा। दोनों के यहाँ पहले से प्रसिद्ध दृष्टान्त का अभाव करना छींक आदि प्रमाणों से बाधित हो जाने के कारण सबको अनेकान्तपन के इस साधने को साध्याभासपना कहेंगे तब तो उस प्रकार सब पदार्थों के सर्वथा एकान्तपन की प्रतिज्ञा यहाँ इष्ट ही कर ली गयी किन्तु सर्वथा एकान्त भी तो प्रमाण से बाधित है॥३४१-३४२-३४३॥ ... तथा वादी को अभिप्रेत साध्य होता है / इस प्रकार साध्य के लक्षण में पड़े हुए अभिप्रेत इस विशेषण द्वारा अनिष्ट को स्वयं ही साध्यपना निवारण कर दिया जाता है। दूसरे वादियों ने भी अनिष्ट को साध्य नहीं माना है। अथवा शब्द द्वारा अभिप्रेत साध्य को न कहा हो, यदि वादी ने अन्य अभिप्रायों से समझा दिया है तो वह भी साध्य हो जाता है। अनुक्त को साध्यरहितपन का अभाव है। कारण कि जिस प्रकार वादी के द्वारा कंठोक्त कह दिया गया पक्ष हो जाता है, उसी प्रकार वादी द्वारा नहीं कहा गया किन्तु अभिप्रेत भी पक्ष हो जाता है। . यदि कोई यों कहे कि प्रस्ताव, प्रकरण आदि के बल से सिद्ध भी पक्षसामर्थ्य से कथित हो जाता है, साध्य हो जाता है, तब तो स्वकीय प्रामाणिक आगमों से कहा गया भी कथंचित् पक्ष क्यों नहीं हो सकेगा? अतः यह सिद्ध हुआ कि उक्त हो अथवा अनुक्त यदि वादी को स्वयं इष्ट है, तो वह यथार्थ रूप से साध्य हो जाएगा। जो वादी को इष्ट नहीं है, वह कैसे भी साध्य नहीं हो सकता है। क्योंकि अनिष्ट को साध्य मानने पर अतिप्रसंग का परिहार नहीं किया जा सकेगा। अर्थात् जो साध्य वादी को इष्ट नहीं है उसको सिद्ध करने के लिए प्रयत्न करना व्यर्थ है, जैसे एकान्त क्षणिक वा कूटस्थनित्य को सिद्ध करने का जैनाचार्य का प्रयत्न करना व्यर्थ है, क्योंकि अपने इष्ट का घातकर अनिष्ट को सिद्ध करना योग्य नहीं है।।३४४३४५-३४६।।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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