________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 250 इति तैः सूक्तमेव, अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणसाधनविषयस्य साध्यत्वप्रतीतेस्तदविषयस्य प्रत्यक्षादिविरुद्धस्य प्रसिद्धस्यानभिप्रेतस्य वा साधयितुमशक्यस्य साध्याभासत्वनिर्णयात्। तत्र हिशक्यं साधयितुं साध्यमित्यनेन निराकृतः। प्रत्यक्षादिप्रमाणैर्न पक्ष इत्येतदास्थितम् // 337 // तेनानुष्णोग्निरित्येष पक्षः प्रत्यक्षबाधितः / धूमोनग्निज एवायमिति लैंगिकबाधितः॥३३८॥ प्रेत्यासुखप्रदो धर्म इत्यागमनिराकृतः / नृकपालं शुचीति स्याल्लोकरूढिप्रबाधितः // 339 // पक्षाभासः स्ववाग्बाध्यः सदा मौनव्रतीति यः। स सर्वोपि प्रयोक्तव्यो नैव तत्त्वपरीक्षकैः // 340 // शब्दक्षणक्षयकांतः सत्त्वादित्यत्र केचन। दृष्टांताभावतोशक्यः पक्ष इत्यभ्यमंसत // 341 // जिन वादियों ने इस प्रकार कहा था कि शक्य, अभिप्रेत और असिद्ध धर्म वाला साध्य होता है। उससे भिन्न धर्म साध्याभास कहा जाता है। जो कि विरुद्ध, बाधित आदि हेतुओं (हेत्वाभासों) के द्वारा कहा गया है। वे समीचीन साधन के विषय नहीं होने से अशक्य, अनभिप्रेत और असिद्ध धर्म साध्याभास कहे जाते हैं। जैनाचार्य का यह कथन समीचीन है क्योंकि अन्यथानुपपत्तिनामक एक लक्षण वाले हेतु द्वारा सिद्ध किये गए विषय को साध्यपना प्रतीत होता है। जो साध्य करने के लिए अशक्य है और जनसमुदाय में प्रसिद्ध है अथवा जो वादी को अभीष्ट नहीं है, ऐसे बाधित, प्रसिद्ध, अनिष्ट धर्म को साध्याभासपने का निर्णय है। साध्य के लक्षण उन तीन विशेषणों में व्यवस्थित है-कारण कि-इस प्रकार साधने के लिए जो शक्य होता है वह साध्य है। इस शक्य विशेषण के द्वारा प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से निराकृत पक्ष नहीं होना चाहिए। यह सिद्धांत व्यवस्थित किया है। अर्थात् जिस प्रतिज्ञावाक्य में प्रत्यक्ष आदि से बाधा उपस्थित होगी वह साध्यकोटि में नहीं रह सकता है॥३३७।। इसलिए साध्य के लक्षण में शक्यवाद विशेषण देने से इनकी व्यावृत्ति हो जाती है कि अग्नि अनुष्ण है। यों यह पक्ष स्पर्शन इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षप्रमाण से बांधित है और धुआँ अग्नि से भिन्न पदार्थों से उत्पन्न है, यह प्रतिज्ञा अनुमान से बाधित है क्योंकि अग्नि से उत्पन्न हुआ धुआँ दृष्टिगोचर हो रहा है। इस प्रकार अव्यभिचारी कार्यकारणभाव का अनुमान कर लिया गया है तथा धर्मपालन करना मरने के पीछे सुख देने वाला नहीं है, यह पक्ष आगमप्रमाण से निराकृत हो जाता है। अर्थात् आगम में धर्म को सुख देने वाला कहा है, उस धर्म को सुख देने वाला नहीं कहना, दुःख देने वाला कहना आगम बाधित है // 338 // 'मानव के सिर का कपाल शुद्ध होता है, क्योंकि प्राणी का अंग है। जो प्राणियों का अंग है वह शुद्ध होता है जैसे सीप शंखादि।' यह कथन लोकरूढ़ि से बाधित है, क्योंकि लोक में मानव का सिर कपाल अशुद्ध माना गया है।॥३३९॥ स्ववचनबाधित प्रतिज्ञा भी पक्षाभास है। जैसे कि “मैं सदा मौन व्रत रखता हुँ।" यह कथन स्ववचन बाधित है क्योंकि बोल रहा हूँ और मौन व्रत कर रहा हूँ। इस प्रकार लोकबाधित, अनुमानबाधित साध्याभास का प्रयोग नहीं करना चाहिए अत: जैन सिद्धांत में अबाधित को ही साध्य अभीष्ट किया है॥३४०॥