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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 247 सहचरव्यापककारणानुपलब्धिस्तत्रैव शृंगारंभकपुद्गलसामान्याभावादिति प्रतिपत्तव्यानि॥ उपलब्ध्यनुपलब्धिभ्यामित्येवं सर्वहेतवः। संगृह्यते न कार्यादित्रितयेन कथंचन // 330 // नापि पूर्ववदादीनां त्रितयो न निषेधने। साध्ये तस्यासमर्थत्वाद्विधा चैव प्रयुक्तितः // 331 // ननु च कार्यस्वभावानुपलब्धिभिः सर्वहेतूनां संग्रहो मा भूत् सहचरादीनां तत्रांतर्भावयितुमशक्तेः। पूर्ववदादिभिस्तु भवत्येव, विधौ निषेधे च पूर्ववतः परिशेषानुमानस्य सामान्यतो दृष्टस्य च प्रवृत्त्यविरोधात्सहचरादीनामपि तत्रांतर्भावयितुमशक्यत्वात्। ते हि पूर्ववदादिलक्षणयोगमनतिक्रामंतो न ततो भिद्यंत इति कश्चित्। सोपि यदि पूर्ववदादीनां साध्याविरुद्धानामुपलब्धिं विधौ प्रयुंजीत निषेध्यविरुद्धानां च प्रतिषेधे निषेध्यस्वभावकारणादीनां त्वनुपलब्धिं तदा कथमुपलब्ध्यनुपलब्धिभ्यां सर्वहेतुसंग्रहं नेच्छेत् // पूर्ववत्कारणात्कार्येनुमानमनुमन्यते / शेषवत्कारणे कार्याद्विज्ञानं नियतस्थितेः॥३३२॥ ____ उनके कारण उन सींगों को बनाने वाले विशेष जाति के पुद्गल हैं। इनकी अनुपलब्धि हेतु दक्षिणसींग के अभाव को सिद्धकरती है अत: यह लोक में प्रसिद्ध सहचर व्यापक-कारण की अनुपलब्धि है तथा सहचर व्यापककारण-कारण की अनुपलब्धि इस प्रकार है। अश्व के सीधी तरफ का सींग नहीं है क्योंकि सींग को बनाने वाले पुद्गल सामान्य का अभाव है। अंगोपांगनामकर्म के उदय से आहारवर्गणा द्वारा बनाये गये सींग के उपयोगी पुद्गलसामान्य का अश्व में अभाव है। उनका कारण सामान्य पुद्गल हैं जो कि सींग के उपयोगी विशेषपुद्गल को बनाया करते हैं। उनकी अनुपलब्धि होने से घोड़े के सिर में दक्षिणसींग का अभाव सिद्ध किया गया है अत: यह सहचरव्यापक-कारण-कारण अनुपलब्धि है। इसी प्रकार अन्य भी उदाहरण समझ लेने चाहिए। इस प्रकार पूर्व में कथित उपलब्धियों और अनुपलब्धियों के द्वारा सम्पूर्ण हेतुओं का संग्रह कर लिया जाता है किन्तु बौद्ध के द्वारा माने गये कार्य, स्वभाव, अनुपलब्धि हेतुत्रय से कैसे भी सम्पूर्ण हेतुओं के भेद संगृहीत नहीं हो पाते हैं। तथा पूर्ववत् , शेषवत् , सामान्यतो दृष्ट इन तीन हेतुओं के द्वारा भी सभी हेतुओं का संग्रह नहीं हो पाता है क्योंकि निषेध को साध्य करने में वे पूर्वचर आदि तीनों असमर्थ हैं अतः जैनसिद्धान्तानुसार उपलब्धि और अनुपलब्धि ये दो प्रकार के ही हेतु प्रयुक्त किये गये हैं॥३३०-३३१॥ शंका : बौद्धों द्वारा स्वीकृत कार्य, स्वभाव अनुपलब्धि हेतुओं के द्वारा सम्पूर्ण हेतुओं का संग्रह नहीं होता है क्योंकि सहचर, पूर्वचर आदि का उन तीन में अंतर्भाव करना शक्य नहीं है। किन्तु पूर्ववत् आदि भेदों के द्वारा तो सब हेतुओं का संग्रह हो ही जाता है क्योंकि विधि और निषेध को साध्य करने में पूर्ववत् हेतु की और प्रसंग प्राप्तों का निषेध किये जा चुकने पर परिशेष में अवशिष्ट रहे का अनुमान कराने वाले शेषवत् हेतु की तथा सामान्यतो दृष्ट हेतु की प्रवृत्ति होने में विरोध नहीं आता है अतः सहचर, पूर्वचर आदि का भी उन पूर्ववत् शेषवत् आदि में अन्तर्भाव करना शक्य है, अर्थात्-पूर्ववत्, शेषवत् और सामान्यतो दृष्ट हेतु में विधि आदि सर्व हेतुओं का संग्रह करना शक्य है, क्योंकि वे सहचर आदि हेतु पूर्ववत् आदि के लक्षण के सम्बन्ध का अतिक्रमण नहीं करते हुए उन पूर्ववतों आदि से भिन्न नहीं हैं। इस प्रकार कोई कह रहा है।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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