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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 248 कार्यकारणनिर्मुक्तादर्थात्साध्ये तथाविधे। भवेत्सामान्यतो दृष्टमिति व्याख्यानसंभवे // 333 // विधौ तदुपलंभः स्युनिषेधेनुपलब्धयः। ततश्च षड्विधो हेतुः संक्षेपात्केन वार्यते // 334 // ___ अत्र निषेधेनुपलब्धय एवेति नावधार्यते स्वभावविरुद्धोपलब्ध्यादीनामपि तत्र व्यापारात् तत एव विधावेवोपलब्धय इति नावधारणं श्रेय इत्युक्तप्रायं / एतेन प्राग्व्याख्यानेपि पूर्ववदादीनामुपलब्धयस्तिस्रोनुपलब्धयश्चेति संक्षेपात् षड्विधो हेतुरनिवार्यत इति निवेदितं / अतिसंक्षेपाद्विशेषतो द्विविध उच्यते समाधान : अब आचार्य कहते हैं कि वह नैयायिक भी यदि साध्य से अविरुद्ध हो रहे पूर्ववत् आदि की उपलब्धि को विधि साधने में प्रयोग करेगा और निषेध्य से विरुद्ध हो रहे पूर्ववत् आदि की उपलब्धि को प्रतिषेध साधने में प्रयुक्त करेगा तथा निषेध करने योग्य स्वभाव, कारण आदि की अनुपलब्धि को विधि और निषेध को साधने में प्रयुक्त करेगा तब तो उपलब्धि हेतुओं के द्वारा ही सब हेतुओं के संग्रह को क्यों नहीं चाहेगा। अर्थात्-विधि और निषेध को साधने वाली उपलब्धि तथा विधि और निषेध को साधने वाली अनुपलब्धि के द्वारा ही सम्पूर्ण हेतुओं का संग्रह होना सिद्ध होता है, अन्यथा नहीं। ___ कारण से कार्य का अनुमान पूर्ववत् हेतु माना जाता है और कार्य से कारण का अनुमान शेषवत् है। हेतु की अपने साध्य के साथ नियत स्थिति होनी चाहिए तथा कार्य कारण रहित पदार्थ से उस प्रकार के कार्यकारण रहित साध्य में जिस हेतु से अनुमान किया जाएगा वह सामान्यतो दृष्ट हेतु है। इस प्रकार नैयायिकों द्वारा व्याख्यान होना संभव होने पर विधि को साधने में उन पूर्ववत् आदि तीन के उपलम्भ और निषेध को साधने में उन तीन की अनुपलब्धियाँ होती हैं। इस प्रकार संक्षेप से छह प्रकार के हेतु का कौन निवारण कर सकता है अर्थात्-स्याद्वादी भी किसी अपेक्षा से पूर्ववत् आदि की उपलब्धि और अनुपलब्धि के भेद से छह प्रकार का हेतु मानते हैं // 332-333-334 / / इस प्रकरण में निषेध को साधने में अनुपलब्धियाँ ही उपयोगी हैं, यह अवधारणा नहीं करनी चाहिए, क्योंकि स्वभाव से विरुद्ध उपलब्धि आदिकों का भी उस निषेध को साधने में व्यापार होता है। अतः विधि को साधने में उपलब्धियाँ ही हैं, यह अवधारणा करना श्रेष्ठ नहीं है। इस बात को पूर्व प्रकरणों में कह दिया गया है। इस कथन से यह भी निवेदन कर दिया गया है कि पूर्व में किए हुए व्याख्यान में भी पूर्ववत् आदि की उपलब्धियाँ तीन प्रकार की हैं और पूर्ववत् आदि की उपलब्धियाँ भी तीन हैं। इस प्रकार संक्षेप से छह प्रकार के हेतु का निवारण नहीं किया जा सकता। अति संक्षेप में हेतु दो प्रकार का कहा जाता है। तथा सामान्य की अपेक्षा से अन्यथानुपपत्तिरूप नियम नाम के लक्षण से युक्त एक ही हेतु है। इस प्रकार कथन करने में हमें कुछ भी विरुद्ध नहीं दीख रहा है। अर्थात्-सामान्य की अपेक्षा से अन्यथानुपपत्तिस्वरूप एक ही हेतु है और विशेषभेदों की अपेक्षा करने पर अतिसंक्षेप में दो प्रकार का है-उपलब्धि और अनुपलब्धि और संक्षेप में पूर्ववत् आदि के साथ उपलब्धि अनुपलब्धि को जोड़कर छह प्रकार का हेतु हो सकता है। एवम् विस्तार से अनेक भेद हो सकते हैं।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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