________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 241 पक्षधर्मात्यये युक्ताः सहचार्यादयो यतः। सत्यं च हेतवो नातो हेत्वाभासास्तथापरे // 306 // त्रिधैव वाविनाभावानियमाद्धेतुरास्थितः। कार्यादिर्नान्य इत्येषा व्याख्यैतेन निराकृता // 307 // तदेवं कस्यचिदर्थस्य विधौ प्रतिषेधोपलब्धिभेदानभिधाय संप्रति निषेधेनुपलब्धिप्रपंचं न निश्चिन्वन्नाह;निषेधेऽनुपलब्धिः स्यात्फलहेतुद्वयात्मना। हेतुसाध्याविनाभावनियमस्य विनिश्चयात् // 308 // निषेधेऽनुपलब्धिरेवेति नावधारणीयं विरुद्धोपलब्ध्यादेरपि तत्र प्रवृत्तिः निषेध एवानुपलब्धिरित्यवधारणे तु न दोषः प्रधानेन विधौ तदप्रवृत्तेः। सा च कार्यकारणानुभयात्मनामवबोद्धव्या॥ तत्र कार्याप्रसिद्धिः स्यान्नास्ति चिन्मृतविग्रहे। वाक्रियाकारभेदानामसिद्धेरिति निश्चिता // 309 // ननु वागादिष्वप्रतिबद्धसामर्थ्याया एव चितो नास्तित्वं वचनानुपलब्धेः सिद्ध्येन्न तु प्रतिबद्धसामर्थ्याया पक्षसत्त्व नामक गुण के नहीं रहने से कार्य स्वभाव, अनुपलब्धि हेतुओं से भिन्न सभी हेतु हेत्वाभास नहीं हो सकते हैं। भावार्थ : पक्षधर्मत्व के न होते हुए भी पूर्वचर आदि हेतुओं को सद्धेतुपना सिद्ध है॥३०५-३०६॥ पक्षसत्त्व, सपक्षसत्त्व और विपक्ष व्यावृत्ति इन तीन गुणों से युक्त कार्य, स्वभाव, अनुपलब्धि ये तीन ही हेतु हैं। अथवा कार्य, कारण, अकार्य कारण तथा वीत, अवीत, वीतावीत एवं पूर्ववत् आदि तीन संयोगी तीन ही प्रकार के हेतु सब ओर व्यवस्थित हैं। अन्य हेतुओं के भेद नहीं हैं। अविनाभाव नियम की कोई आवश्यकता नहीं है। इस प्रकार का व्याख्यान भी इस उक्त कथन से निराकृत कर दिया गया है। अर्थात् पूर्ववत् आदि, कार्य आदि से पृथक् सहचर आदि हेतु भी अविनाभाव की सामर्थ्य से सद्धेतु प्रसिद्ध हैं॥३०७।। अविनाभाव सम्बन्ध के बिना हेतु नहीं हो सकता। इस प्रकार किसी भी अर्थ की विधि को अथवा प्रतिषेध को सिद्ध करने के लिए दिये गए उपलब्धि के भेदों का कथन करके अब निषेध को साधने में अनुपलब्धि हेतुओं के विस्तार का निश्चय कराते हुए आचार्य कहते हैं निषेध को साधने में फल (कार्य), कारण और इन दोनों से पृथक् तीसरे अकार्य कारण स्वरूप तीन प्रकार की अनुपलब्धि है, क्योंकि हेतु का साध्य के साथ अविनाभाव रखना रूप नियम का विशेष रूप से निश्चय हो रहा है।३०८॥ ___ निषेध को साधने में अनुपलब्धि ही हेतु है। इस प्रकार का अवधारण नहीं करना चाहिए, क्योंकि उस निषेध को साधने में विरुद्ध उपलब्धि आदि की भी प्रवृत्ति होती है। निषेध को साधने में ही अनुपलब्धि हेतु उपयोगी है। ऐसा अवधारण करने में तो कोई विशेष दोष नहीं आता है क्योंकि प्रधान रूप से विधि करने में उस अनुपलब्धि की प्रवृत्ति नहीं मानी गई है तथा वह अनुपलब्धि कार्य की, कारण की और उभयभिन्न अकार्यकारण की सिद्धि है, ऐसा जान लेना चाहिए। . उस अनुपलब्धि के तीन भेदों में कार्य की अनुपलब्धि का उदाहरण इस प्रकार निश्चित किया गया है कि इस मृतक शरीर में चैतन्य नहीं है, वचन विशेष और क्रिया विशेषों की अनुपलब्धि होने से // 309 //