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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 242 विद्यमानाया अपि वागादिकार्ये व्यापारासंभवान्नावश्यं कारणानि कार्यं चिति भवंति प्रतिबंधवैकल्यसंभवे कस्यचित्कारणस्य स्वकार्याकरणदर्शनात्ततो नेयं कार्यानुपलब्धिर्गमिका चिन्मात्राभावसिद्धाविति कश्चित् / तथापि संबंधकार्याभावात्कथं नित्यात्माद्यभावसिद्धिरिति स्वमतव्याहतिरुक्ता / ततः स्वसंताने संतानांतरं वर्तमानक्षणे क्षणांतरं संविदद्वये वेद्याकारभेदं वा तत्कार्यानुपलब्धेरसत्वेन साधयत्कार्यानुपलब्धेरन्यथानुपपत्तिसामर्थ्यानिश्चयाद्गमकत्वमभ्युपगंतुमर्हत्येव / स्वभावानुपलब्धेस्तु तादृशेनिष्टेः प्रकृतकार्यानुपलब्धौ पुनरन्यथानुपपन्नत्वसामर्थ्यनिश्चयो लोकस्य स्वत एवात्यंताभ्यासात्तादृशं लोको विवेचयतीति प्रसिद्धस्ततः साधीयसी कार्यानुपलब्धिः॥ कारणानुपलब्धिस्तु नार्थिताचरणं शुभम्। सम्यग्बोधोपलंभस्याभावादिति विभाव्यते // 310 // ____ सम्यग्बोधो हि कारणं सम्यक्चारित्रस्य तदनुपलब्धितः स्वसंताने तदभावं साधयति कुतश्चिदुपजातस्य शंका : वचन बोलना, हाथ पाँव की क्रिया करना आदि व्यापारों में अप्रतिबद्ध सामर्थ्य से युक्त चैतन्य का ही नास्तिपना मृतशरीर में वचन अनुपलब्धि हेतु से सिद्ध हो सकता है, किन्तु जिस छिपे हुए चैतन्य का बोलना, नाड़ी चलना, हृदय की धड़कन आदि व्यापार कराने की सामर्थ्य नष्ट हो गई है, उस गुप्त चैतन्य का निषेध तो वचन आदि की अनुपलब्धि से नहीं हो सकता है क्योंकि वह सुप्त चैतन्य नाड़ी चलना आदि कार्यों को नहीं करता है। सभी कारण आवश्यक रूप से कार्यों को करते ही हैं, ऐसा कोई नियम नहीं है। प्रतिबन्धकों के आ जाने से अथवा अन्य कारणों की विकलता सम्भव होने पर कोई कारण अपने कार्यों को नहीं करते हुए देखे गये हैं अत: यह कार्य अनुपलब्धि हेतु अपने साध्य का गमक नहीं है। अतः स्थूल, सूक्ष्म, गुप्त सभी सामान्यरूप से, चैतन्यों के अभाव को साधने में दियागया वचन आदि की अनुपलब्धि हेतु अपने साध्य का साधक न हो सका, इस प्रकार कोई कहता है। ___इसका समाधान करते हुए आचार्य कहते हैं कि उसके भी सम्बन्धरूप कार्य का अभाव होने से नित्य आत्मा, आकाश आदि के अभाव की सिद्धि कैसे हो सकेगी? क्योंकि उसको अपने मत का व्याघात दोष कहा है अतः अपनी सन्तान में संतानान्तर को अथवा वर्तमान क्षणिक पर्याय के अवसर में अन्य कालों की पर्याय को तथा शुद्धसंवेदन अद्वैत में वेद्य, वेदक, संवित्ति इन तीन के भेद को उनके कार्य की अनुपलब्धि से वैभाषिक बौद्ध अन्यथानुपपत्ति की सामर्थ्य के निश्चय से कार्यानुपलब्धि हेतु का गमकपना स्वीकार करने के लिए समर्थ हो ही जाता है अतः कार्यानुपलब्धि को गमक मानना ही पड़ेगा। दृश्य कार्यों की अनुपलब्धि से कारण का निषेध जान लेना योग्य ही है। स्वभाव अनुपलब्धि उस प्रकार के अभाव को साधने में इष्ट नहीं है। क्योंकि योग्य कारण के अभाव को साधने में दी गई प्रकरणप्राप्त कार्य-अनुपलब्धि में अन्यथानुपपत्ति की सामर्थ्य का निश्चय जन समुदाय को स्वतः ही हो जाता है। बौद्धों के यहाँ भी यह प्रसिद्ध है कि अत्यन्त अभ्यास हो जाने से उस प्रकार के अर्थ का लोक स्वयं विचार कर लेता है अत: कारण-कार्य की अनुपलब्धि सिद्ध है। मुझ में समीचीन चारित्र नहीं है क्योंकि सम्यग्ज्ञान के उपलम्भ का अभाव है। यहाँ निषेध्य सम्यक्चारित्र के कारण सम्यग्ज्ञान की अनुपलब्धि होने से यह कारण-अनुपलब्धि हेतु कहा जाता है॥३१०॥
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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