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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 239 स्वकारणात्तथाग्निश्शेजातो धूमस्य कारकः। चैतन्यसहकार्यस्तु स्पर्शोंगे तददृष्टतः // 29 // दृष्टाद्धेतोर्विना ये नियमात्सहचारिणाः। अदृष्टकरणं तेषां किंचिदित्यनुमीयते // 297 // द्रव्यतोऽनादिरूपाणां स्वभावोस्तु न तादृशः। साध्यसाधनतैवैषां तत्कृतान्योन्यमित्यसत् // 298 // ये चार्वाक्परभागाद्या नियमेन परस्पराः। सहभावमितास्तेषां हेतुरतेन वर्णितः॥२९९॥ ततोतीतैककालानां गति: किं कार्यलिंगजा। नियमादन्यथा दृष्टिः सहचार्यादसिद्धितः॥३००॥ तथोत्तरचरस्योपलब्धिस्तज्जैरुदाहृता। उदगाद्भरणिराग्नेयदर्शनान्नभसीति सा // 301 // कोई भी सम्बन्ध नहीं माना है अत: बौद्धों का सर्वथा भिन्न पदार्थों में कार्यकारणभाव मानना और जैन सिद्धान्त का अविनाभाव मानना समान क्यों नहीं होगा? यदि सर्वथा पूर्व अपर क्षणों में कार्यकारणभाव जाना जा रहा है, तब तो इस प्रकार का समाधान हम जैनों के यहाँ भी समान ही है॥२९४-२९५॥ जैसे अपने कारणों से उत्पन्न अग्नि धुआँ की कारक (उत्पादक) देखी जाती है, उसी प्रकार शरीर में स्थित स्पर्श भी पुण्य, पाप से सहकृत चैतन्यरूप सहकार कारण से उत्पन्न होता है। प्रत्यक्ष देखे गये हेतु के बिना भी जो अर्थ नियम से सहचारी हैं उनका भी कोई न कोई अदृष्ट कारण अनुमान द्वारा जान लिया जाता है। अर्थात् जैसे-एक ही गुरु के पास पढ़े हुए विद्यार्थियों की बुद्धि को देखकर उनके ज्ञानावरण के तीव्र, मन्द, मन्दतर, मध्यम आदि विजातीय क्षयोपशमों का अनुमान कर लिया जाता है वैसे ही साथ रहने वाले हेतु और साध्यों के सम्बन्ध का अविनाभाव रूप से कहीं-कहीं अनुमान कर लिया जाता है।।२९६.२९७॥ अनादिनिधन द्रव्य की अपेक्षा से अनादि से चले आए स्वरूपों का उस प्रकार का स्वभाव तो नहीं है (बौद्ध किसी भी द्रव्य को अनादिनिधन नहीं मानते हैं) जिससे कि इन सहचारियों का उस द्रव्यस्वरूप से किया गया परस्पर में साध्य साधन भाव हो सकता हो। जैन कहते हैं कि ऐसा कहना प्रशंसनीय नहीं है, क्योंकि पदार्थों का कालान्तर तक स्थायीपना और सम्बन्ध पूर्व प्रकरणों में सिद्ध किया गया है॥२९८॥ . किसी भींत आदि का पूर्व पश्चिम भाग आदि नियम से परस्पर है, सहभावी है, उनके साध्य साधन भाव है। इस कथन से उनके सहचारीपन का साधन भी वर्णन कर दिया गया है। - भावार्थ : इस भींत में परभाग अवश्य है, क्योंकि उरला भाग दीख रहा है, इस प्रकार इस हेतु के द्वारा साथ रहने वाले कतिपय पदार्थों के अविनाभाव का कथन किया गया है।।२९९॥ ___ अतः अतीतकाल और एक ही काल में होने वाले पदार्थों का ज्ञान क्या कार्य हेतु से उत्पन्न हुआ माना है? - क्योंकि अविनाभाव नियम के बिना सहचरपने से केवल देख लेना कार्य का गमक नहीं है। क्योंकि अविनाभावरहित पदार्थों के हेतुहेतुमद्भाव की असिद्धि है॥३००॥
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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