________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 237 पितामहः पिता किं न तथैव प्रपितामहः। सर्वो वानादिसंतान: सूनोः पूर्वत्वयोगतः // 282 // स्वरूपलाभहेतोश्चेत् पितृत्वं नेतरस्य तु। प्राक् शकटस्य मा भूवन् कृत्तिकाहेतवस्तथा॥२८३॥ पूर्वपूर्वचरादीनामुपलब्धिः प्रदर्शिता / पूर्वाचार्योपलंभेन ततो नार्थांतरं मतम् // 284 // सहचार्युपलब्धिः स्यात्कायश्चैतन्यवानयम् / विशिष्टस्पर्शसंसिद्धेरिति कैश्चिदुदाहृतम् // 285 / / कार्ये हेतुरयं नेष्टः समानसमयत्वतः। स्वातंत्र्येण व्यवस्थानाद्वामदक्षिणशृंगवत् // 286 // एकसामग्यधीनत्वात्तयोः स्यात्सहभाविता / क्वान्यथा नियमस्तस्यास्ततोन्येषामितीति चेत् // 287 // नैकद्रव्यात्मतत्त्वेन विना तस्या विरोधतः। सामग्येका हि तद्रव्यं रसरूपादिषु स्फुटम् // 288 // कृत्तिका को सहकारी कारण बनाती हुई भरणी भी उस शकट के उदय में यदि कारण मानी जाएगी तब तो कुछ और भी अन्यकाल की अपेक्षा रखती हुई भरणी और कृत्तिका को सहकारीकारण मानती हुई अश्विनी को भी शकट का कारण क्यों नहीं मानना चाहिए // 281 // जिस प्रकार पुत्र का कारण पिता है, उसी प्रकार पितामह अथवा प्रपितामह भी पुत्रोत्पत्ति का कारण क्यों नहीं कहा जाता? एवं पुत्र के पूर्व में रहने का सम्बन्ध होने से सभी पहले की अनादि संतान भी पुत्र का बाप बन जावेंगी। (परन्तु उनको कारण मानना इष्ट नहीं है)॥२८२॥ . यदि पुत्र के स्वरूप को लाभ कराने में कारण पहली पीढ़ी में होने वाले जनक का ही पितापन है, अन्य बाबा आदि को पितापना नहीं है, तब तो पूर्वकाल में स्थित कृत्तिका का उदय भी शकट के उदय का कारण नहीं है॥२८३॥ पूर्व पूर्ववर्ती नक्षत्र आदि की उपलब्धि भी इस पूर्वचर नाम के भेद से ही दिखला दी गई है। पूर्व आचार्यों ने भी पूर्वचर हेतु से भिन्न हेतु नहीं माना है। जैसे कि दो मुहूर्त पीछे रोहिणी का उदय होगा क्योंकि 'भरणी का उदय हो रहा है। पूर्वपूर्वचर हेतु भी पूर्वचर हेतु में गर्भित हो जाता है।॥२८४|| . सहचर उपलब्धि का उदाहरण - यह शरीर चैतन्ययुक्त है, मृत नहीं है क्योंकि जीवित पुरुषों में पाये जाने वाले विशिष्ट प्रकार के स्पर्श की सिद्धि हो रही है। ऐसा किन्हीं विद्वानों ने सहचर उपलब्धि का उदाहरण दिया है॥२८५॥ इस सहचर हेतु का कार्यहेतु में गर्भित हो जाना इष्ट नहीं है, क्योंकि इन दोनों का समय समान है। साथ-साथ रहने वाले साध्य और हेतु स्वतंत्रता से व्यवस्थित हो रहे हैं जैसे कि गौ के मस्तक पर बांये ओर का और दाहिने ओर का सींग साथ रहकर भी स्वतंत्र व्यवस्थित हैं। (पहले और पीछे समयों में होने वालों में कार्यकारणभाव सम्भव है, साथ रहने वालों में नहीं अत: यह सहचर हेतु कार्य हेतु से पृथक् है)॥२८६॥ एक सामग्री के अधीन होने से उन दायें और बायें सींगो में सहचरपना है अन्यथा उनसे भिन्न पदार्थों में उस सामग्री का नियम कैसे हो सकता है? अर्थात् सहचर हेतुओं में भी कार्यकारण भाव मान लेना चाहिए तभी तो एक सामग्री के अनुसार उनमें सहचरपना बन सकता है। बौद्धों का ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि तत्त्व के बिना एक द्रव्य स्वरूप हो जाना एक सामग्री का विरोध है क्योंकि वह द्रव्य ही तो एक सामग्री