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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 19 ज्ञानमित्यनिष्टोर्थो निवर्तित: स्यात्। कुतोयमर्थोनिष्टः? केवलस्य मत्यादिक्षयोपशमिकज्ञानचतुष्टयासंपृक्तस्य ज्ञानत्वविरोधात् / मत्यादीनां चैकशः सोपयोगानामुक्तज्ञानांतरासंपृक्तानां ज्ञानत्वव्याघातात् तस्य प्रतीतिविरोधाच्चेति निश्चीयते। किं मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलान्येव ज्ञानमिति पूर्वावधारणं द्रष्टव्यं तानि ज्ञानमेवेति परावधारणं वा तदुभयमविरोधादित्याह - मत्यादीन्येव संज्ञानमिति पूर्वावधारणात्। मत्यज्ञानादिषु ध्वस्तसम्यग्ज्ञानत्वमूह्यते // 17 // संज्ञानमेव तानीति परस्मादवधारणात् / तेषामज्ञानतापास्ता मिथ्यात्वोदयसंसृता // 18 // न ह्यत्र पूर्वापरावधारणयोरन्योन्यं विरोधोस्त्येकतरव्यवच्छेद्यस्यान्यतरेणानपहरणात् / नापि तयोरन्यतरस्य वैयर्थ्यमेकतरसाध्यव्यवच्छेद्यस्यान्यतरेणासाध्यत्वादित्यविरोध एव॥ प्रश्न : पाँचों को मिला करके एक ज्ञानपना हो जाना यह अर्थ किस कारण से अनिष्ट है ? . उत्तर : ऐसा मानने पर प्रतिपक्षी कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न मति, श्रुत, अवधि और मन:पर्यय इन चारों ज्ञानों के साथ सम्पर्क नहीं रखने वाले केवलज्ञान के ज्ञानपने का विरोध आता है अर्थात् छठे से लेकर बारहवें गुणस्थान तक किसी एक मुनिमहाराज को चारों ज्ञान लब्धिरूप से एक समय में हो सकते हैं। किन्तु ज्ञानावरण के क्षय होने पर उत्पन्न केवलज्ञान का उक्त चारों ज्ञान से साहचर्य नहीं है। मति, श्रुत आदि एक-एक ज्ञान के उपयोग सहित अन्य श्रुत आदि ज्ञानान्तर से असंयुक्त मतिज्ञानादि एक-एक ज्ञान के ज्ञानपने का व्याघात हो जाता है। परन्तु मति आदिक एक-एक के ज्ञानपना प्रतीत हो रहा है अतः समुदित को एक ज्ञानपना प्रतीति से विरोध है, ऐसा निश्चय किया जाता है। - प्रश्न : इस सूत्र में मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल ये ही ज्ञान हैं। ऐसी पूर्व अवधारणा करना चाहिए अथवा वे मति आदि ज्ञान ही हैं? इस प्रकार एवं लगाकर अवधारणा करना आवश्यक है? ... उत्तर : आचार्य कहते हैं कि ये दोनों ही अवधारणाएँ विरुद्ध न होने के कारण हमको अभीष्ट हैं। इसी को वार्तिक द्वारा कहते हैं - ___मति, श्रुत आदि पाँचों ही समीचीन ज्ञान हैं। इस प्रकार पूर्व अवधारणा से कुमति, कुश्रुत और विभंग में सम्यग्ज्ञानपना नष्ट कर दिया गया है, ऐसा जानना चाहिए। तथा वे मति आदि ज्ञान सम्यग्ज्ञान ही हैं। इस प्रकार पिछली अवधारणा में मिथ्यात्व कर्म के उदय से संसरण करने वाली अज्ञानता दूर कर दी गई है, ऐसा समझ लेना चाहिए // 17-18 // इस सूत्र की पूर्व अवधारणा और उत्तर अवधारणाओं का परस्पर विरोध नहीं है। क्योंकि दोनों में से एक द्वारा व्यवच्छेद को प्राप्त शेष दूसरे के द्वारा दूरीकरण नहीं होता है। इस प्रकार इन दोनों में से किसी एक अवधारणा का व्यर्थपना भी नहीं है क्योंकि दोनों में से किसी एक के द्वारा सिद्ध किया गया व्यवच्छेद होने रूप कार्य शेष दूसरे एक के द्वारा असाध्य है। इस प्रकार दोनों एवकारों में परस्पर विरोध नहीं है अपितु अविरोध है।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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