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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 18 सामान्यमात्रग्राहिवत् / सामान्यविशेषात्मन एव जात्यंतरस्यानुमानेन व्यवस्थितेः। यथा हि / सामान्यविशेषात्मकमखिलं वस्तु, वस्त्वन्यथानुपपत्तेः। वस्तुत्वं हि तावदर्थक्रियाव्याप्तं सा च क्रमयोगपद्याभ्यां, ते च स्थितिपूर्वापरभावत्यागोपादानाभ्यां, ते च सामान्यविशेषात्मकत्वेन सामान्यात्मनोपाये स्थित्यसंभवात् / विशेषात्मनोसंभवे पूर्वापरस्वभावत्यागोपादानस्यानुपपत्तेः। तदभावे क्रमयोगपद्यायोगादनयोरर्थक्रियानवस्थिते: न कस्यचित्सामान्यैकांतस्य विशेषैकांतस्य वा वस्तुत्वं नाम खरविषाणवत्। न हि सामान्यं विशेषनिरपेक्ष कांचिदप्यर्थक्रियां संपादयति, नापि विशेषः सामान्यनिरपेक्षः, सुवर्णसामान्यस्य कंटकादिविशेषाश्रयस्यैवार्थक्रियायामुपयुज्यमानत्वात् कटकादिविशेषस्य च सुवर्णसामान्यानुगतस्यैवेति सकलाविकलजनसाक्षिकमवसीयते। तद्वदिह ज्ञानसामान्यस्य मत्यादिविशेषाक्रांतस्य स्वार्थक्रियायामुपयोगो मत्यादिविशेषस्य च ज्ञानसामान्यान्वितस्येति युक्ता ज्ञानस्य मत्यादिषु प्रत्येकं परिसमाप्तिः। ततश्च मत्यादिसमूहो सामान्य, विशेष आत्मक वस्तु को जानने वाले ज्ञान का बाधक प्रमाण अनुमान है-ऐसा नहीं कहना। क्योंकि केवल विशेषों को ग्रहण करने वाले अनुमान ज्ञान का अभाव है, जैसे कि केवल सामान्य को ही ग्रहण करने वाले अनुमान का अभाव है प्रत्युत सर्वथाभेद अभेदों से भिन्न तीसरी जाति वाले सामान्य विशेष आत्मक ही वस्तु की अनुमान प्रमाण करके ग्रहण व्यवस्था है। जैसे सम्पूर्ण वस्तुएँ सामान्य और विशेष अंशों के साथ तदात्मक हैं, अन्यथा वस्तुपना नहीं बन सकता है। वस्तुपना अर्थकियारूप साध्य से व्याप्त है, और वह अर्थक्रिया अर्थ में क्रम से होती है और युगपत् होती है अत: वे अर्थक्रियायें क्रम और यौगपद्य से व्याप्त हैं तथा वे दोनों क्रमयोगपद्य भी ध्रौव्य के साथ रहने वाले पूर्वस्वभावों का त्याग और उत्तरस्वभावों का ग्रहण करने रूप परिणाम से व्याप्त हैं और वे स्थिति सहित हान उपादानत्रय भी सामान्य, विशेष, आत्मकपने के साथ व्याप्ति रखते हैं क्योंकि, वस्तु के सामान्य स्वरूप का निषेध करने पर स्थिति होना अंसभव है और वस्तु के विशेष स्वरूप को सम्भव न मानने पर पूर्व स्वभावों का त्याग और उत्तरस्वभावों की ग्राह्यता नहीं बनती है, तथा उस परिणाम के न होने पर क्रमयोगपद्य का अयोग हो जाने से केवल सामान्य और केवल विशेष में अर्थक्रिया होने की व्यवस्था नहीं होती है। इसलिए, किसी भी सामान्य एकान्त को अथवा केवल विशेष एकान्त कों वस्तुपना नाम मात्र को भी नहीं है। जैसे दोनों से रहित खरविषाण अवस्तु है, उसी के समान विशेषरहित सामान्य या सामान्य रहित विशेष भी अवस्तु है (निर्विशेषं हि सामान्यं भवेत्खरविषाणवत् सामान्य रहितत्वाच्च विशेषस्तद्वदेव हि)। विशेष निरपेक्ष सामान्य किसी भी अर्थक्रिया का संपादन नहीं कर सकता है। तथा सामान्य निरपेक्ष विशेष से भी अर्थक्रिया नहीं बन सकती है। . कड़ा आदि विशेष परिणतियों के आश्रय होते हुए ही सुवर्ण सामान्य अर्थक्रिया को करने में उपयुक्त होता है तथा कड़े, बाजू आदि विशेष भी सुवर्णपन सामान्य से अन्वित होते ही अर्थक्रिया करने में उपयोगी बनते हैं। यह अविकलरूप से सम्पूर्ण मनुष्यों की साक्षी पूर्वक निश्चित किया जाता है। उसी के समान इस प्रकरण में मति आदि का विशेषों से घिरे हुए ही ज्ञान सामान्य का प्रमितिरूप अपनी अर्थक्रिया करने में उपयोग होता है और ज्ञान सामान्य से अन्वित मति आदि विशेषों का अपनी-अपनी अर्थक्रिया करने में लक्ष्य लगता है। इस कारण कारिका के अनुसार मति, श्रुत,आदि प्रत्येक में ज्ञान शब्द का सम्बन्ध-करना चाहिए। और इससे मति, श्रुत आदि सबका समूह एक ज्ञान है यह अनिष्ट अर्थ निवृत्त हो जाता है।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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