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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 17 अथ परस्य वचनादभ्युपगम: सिद्धः स तु सम्यग्मिथ्या चेति विवादसद्भावादुपालंभः श्रेयान् दोषदर्शनात्। गुणदर्शनात् क्वचित्समाधानवदिति चेत्, कस्य पुनर्दोषस्यात्र दर्शनं? अनवस्थानस्येति चेन, तस्य परिहतत्वात्। विरोधस्येति चेन्न, प्रतीतो सत्यां विरोधस्यानवतारात्। संशयस्येति चेन्न, चलनाभावात्। वैयधिकरणस्यापि न दर्शनं, सामान्यविशेषात्मनोरेकाधिकरणतयावसायात्। संकरव्यतिकरयोरपि न तत्र दर्शनं तद्व्यतिरेकेणैव प्रतीतेः। मिथ्याप्रतीतिरियमिति चेन्न, सकलबाधकाभावात्। विशेषमात्रस्य सामान्यमात्रस्य वा परिच्छेदकप्रत्ययः बाधकमिति चेन्न, तस्य जातुचित्तदपरिच्छेदित्वात् सर्वजात्यंतरस्य सामान्यविशेषात्मनो वस्तुनस्तत्र प्रतिभासनात् / प्रत्यक्षपृष्ठभाविनि विकल्पे तथा प्रतिभासनं न प्रत्यक्षे निर्विकल्पात्मनीति चेन, तस्यासिद्धत्वात् सर्वथा निर्विकल्पस्य निराकरिष्यमाणत्वात्। अनुमानं बाधकमिति चेन्न, तस्य विशेषमात्रग्राहिणोऽभावात पदार्थ में किसी को विवाद नहीं हुआ करता है। अथवा दूसरे जैनों के कथन मात्र से उनके स्वीकार करने से सिद्ध मान लिया है, तो भी वह समीचीन या मिथ्या है? इसमें विवाद का सद्भाव है अत: दोषों के दृष्टिगोचर होने से उलाहना देना ठीक ही है। जैसे गुणों के दिखजाने से कहीं समाधान करना श्रेष्ठ हो जाता है तो इस प्रकार किसी के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि फिर कौन से दोष इस कथंचित् भेद अभेद में दृष्टिगोचर होते हैं ? अनवस्था दोष का सद्भाव है-यह कहना ठीक नहीं, क्योंकि उस अनवस्था दोष का परिहार पहिले प्रकरणों में किया जा चुका है। सामान्य और विशेष में कथंचित् एकत्व और अनेकत्व की सिद्धि . कथंचित् भेद अभेद में विरोधदोष का सद्भाव है, यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि दोनों धर्मों की एक स्थान में प्रतीति होने पर विरोध दोषों का अवतार नहीं होता है। भेद अभेद के अनेकान्त में संशय दोष का सद्भाव है-यह भी कथन ठीक नहीं है, क्योंकि एक धर्मी में चलायमान दो आदि वस्तुओं की प्रतिपत्ति कर लेना संशयज्ञान है किन्तु यहाँ कथंचित् भेद अभेद में प्रतिपत्तियों का चलितपना नहीं है। इसमें वैयधिकरण दोष का भी दर्शन नहीं है। क्योंकि सामान्यरूप विशेषरूप का एक अधिकरण में रहनेपने करके निर्णय हो रहा है, उन भेद-अभेदों में दोनों धर्मों की युगपत् प्राप्ति हो जाना रूप संकर और परस्पर में धर्मों का विषय गमनरूप व्यतिकर दोष भी दृष्टिगोचर नहीं होते हैं, क्योंकि उन संकीर्ण और व्यतिकीर्णरूप से अतिरिक्तस्वरूप से कथंचित् भेद अभेद की प्रतीति होती है। यह प्रतीति मिथ्या है ऐसा भी नहीं कहना चाहिए, क्योंकि इसमें सम्पूर्ण बाधक प्रमाणों का अभाव है। कथंचित् सामान्य विशेष में एकत्व है, सर्वथा नहीं। केवल विशेष का और अकेले सामान्य का परिच्छेद करने वाला ज्ञान बाधक है। ऐसा भी नहीं कहना क्योंकि वह समीचीन ज्ञान कभी भी उन अकेले सामान्य वा विशेष का परिच्छेद करने वाला नहीं है। उस प्रतीति में तो सम्पूर्ण एकान्तों से निराली ही जाति वाली सामान्य, विशेष आत्मक वस्तु का प्रतिभास होता है। बौद्ध यदि कहें कि सर्वथा भेद अभेद से विलक्षण कथंचित् भेद अभेद आत्मक सामान्य विशेष रूप पदार्थ का प्रतिभास प्रत्यक्ष प्रमाण के पीछे होने वाले झूठे विकल्प ज्ञान में होता है। अर्थात् ठीक वस्तु को जानने वाले निर्विकल्पस्वरूप प्रत्यक्ष ज्ञान में तो सामान्य विशेष आत्मक वस्तु प्रतिभासित नहीं होती है। - ऐसा कहना संगत नहीं। क्योंकि, वह निर्विकल्पक प्रत्यक्ष असिद्ध है। सभी प्रकार के ज्ञानों के निर्विकल्पक होने का भविष्य ग्रन्थ में हम निराकरण करने वाले हैं। सभी ज्ञान साकार होने से ही सविकल्प
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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