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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 16 केवलं ज्ञानमित्यपि विशेषाभावात्। सामान्यबहुत्वमेवं स्यादिति चेत्, कथंचिन्नानिष्टं सर्वथा सामान्यैकत्वे अनेकत्वस्वाश्रये सकृद्वृत्तिविरोधादेकपरमाणुवत्। क्रमशस्तत्र तद्वृत्तौ सामान्याभावप्रसंगात् सकृदनेकाश्रयवर्तिनः सामान्यस्योपगमात्। न चैकस्य सामान्यस्य कथंचिद्बहुत्वमुपपत्तिविरुद्धं बहुव्यक्तितादात्म्यात्। यमात्मानं पुरोधाय तस्य व्यक्तिस्तादात्म्यं यं च तादात्म्यं तौ चेद्भिन्नौ भेद एव, नो चेदभेद एवेत्यपि ब्रुवाणो अनभिज्ञ एव / यमात्मानमासृत्य भेदः संव्यवह्रियते स एव हि भेदो नान्यः, यं चात्मानमवलंब्याभेदव्यवहारः स एवाभेद इति तत्प्रतिपत्तौ कथंचिद्भेदाभेदौ प्रतिपन्नावेव तदप्रतिपत्तौ किमाश्रयोऽयमुपालंभ: स्यात् प्रतिपत्तिविषयः। पराभ्युपगमाश्रय इति चेत् स यदि तवात्रासिद्धः कथमाश्रयितव्यः। अथ सिद्धः कथमुपालंभो विवादाभावात्। “प्रत्येक विशेष में पूर्णरूप से व्यापक सामान्य भी बहुत हो जाएंगे। ऐसा कहने पर जैन कहते हैं कि इस प्रकार सामान्य का कथंचित् बाहुल्य हमको अनिष्ट नहीं है। सभी प्रकार सामान्य (जाति) का एकत्व मानने पर एक निरंश सामान्य का अनेक अपने आश्रयों में एक ही समय पूर्ण रूप से वर्तन का विरोध होता है, जैसे एक परमाणु का एक समय अनेक स्थानों पर रहने का विरोध है। यदि उन अनेक आश्रयों में रहने वाले उस सामान्य की क्रमवार वृत्ति मानी जाती है, तो सामान्य के अभाव का प्रसंग आता है। क्योंकि, वैशेषिकों ने एक ही समय अनेक आश्रयों में ठहरने वाला सामान्य पदार्थ स्वीकार किया है। (जो नित्य है, एक है और सकृत् अनेक में अनुगतरूप से रहता है, वह सामान्य है किन्तु, जैन सिद्धान्त में सदृश परिणाम और ऊर्ध्वअंश परिणाम को सामान्य माना गया है) वह सामान्य व्यक्तियों से (विशेष) कथंचित् अभिन्न है। एक सामान्य का बहुत व्यक्तियों के साथ तादात्म्य हो जाने के कारण कथंचित् बहुतपना विरुद्ध नहीं है। जिस स्वरूप को आगे करके उस सामान्य का व्यक्ति से विशेष से तादात्म्य नहीं है, और जिस स्वरूप की अपेक्षा सामान्य का व्यक्तियों के साथ तादात्म्य है, यदि सामान्य और विशेष दोनों परस्पर भिन्न है, तब तो सामान्य और व्यक्तियों में भेद ही रहेगा। यदि वे दोनों स्वरूप परस्पर अभिन्न हैं तो सामान्य और विशेष व्यक्तियों में सर्वथा अभेद ही होगा-इस प्रकार कहने वाला भी जैन सिद्धान्त को समझने वाला नहीं है क्योंकि जिस स्वरूप का आश्रय लेकर भेद का व्यवहार किया जाता है वह स्वरूप ही भेदरूप है। अन्य धर्म और धर्मी भेद रूप नहीं है, तथा जिस आत्मस्वरूप का अवलम्ब लेकर व्यक्ति और सदृशपरिणामों का अभेद व्यवहार किया जाता है वही अभेद है उनका अन्य शरीर अभेद रूप नहीं है अर्थात्-भेद अभेद तो आपेक्षिक धर्म हैं। इस प्रकार उनकी प्रतीति होने पर कथंचित् भेद और कथंचित् अभेद समझना चाहिए। यदि उन स्वरूपों की प्रतिपत्ति नहीं हुई तो किसका आश्रय लेकर यह उलाहना देना प्रतिपत्ति का विषय हो सकेगा ? यदि सर्वथा भेदवादी या अभेदवादी यों कहें कि हमने जैनों के माने हुए कथंचित् भेद-अभेद का आश्रय लेकर भेद-अभेद को जानकर ही उलाहना दिया है तो हम कहेंगे कि जैनों का वह मत स्वीकार करना यदि तुमको इस प्रकरण में असिद्ध है, तब तो वह कैसे आश्रयणीय हो सकेगा ? जैनों के वहाँ इष्ट किये गये कथंचित् भेद अभेद की स्वीकृति को यदि सिद्ध मानोगे, तो वह उलाहना कैसे हुआ? क्योंकि प्रमाणसिद्ध
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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