________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 15 नं हि सूत्रेस्मिन्मत्यादिशब्दानां पाठक्रमे यथोक्तहेतुभ्यः शब्दार्थन्यायाश्रयेभ्योऽन्येपि हेतवः किं नोक्ता इति पर्यनुयोग: श्रेयास्तदुक्तावप्यन्ये किन्नोक्ता इति पर्यनुयोगस्यानिवृत्तेः कुतश्चित्कस्यचित्क्वचित्संप्रतिपत्तौ तदर्थहेत्वंतरावचनमिति समाधानमपि समानमन्यत्र / / ज्ञानशब्दस्य संबंधः प्रत्येकं भुजिवन्मतः। समूहो ज्ञानमित्यस्यानिष्टार्थस्य निवृत्तये // 16 // मत्यादीनि ज्ञानमित्यनिष्टार्थो न शंकनीयः, प्रत्येकं ज्ञानशब्दस्याभिसंबंधाद्भुजिवत् / न चायमयुक्तिकः, सामान्यस्य स्वविशेषव्यापित्वात् सुवर्णत्वादिवत् / यथैव सुवर्णविशेषेषु कटकादिषु सुवर्णसामान्य प्रत्येकमभिसंबध्यते कटकं सुवर्णं कुंडलं सुवर्णमिति। तथा मतिर्ज्ञानं श्रुतं ज्ञानं अवधिर्ज्ञानं मन:पर्ययो ज्ञानं नहीं हो सकती / किसी भी हेतु से किसी भी श्रोता को कहीं भी भले प्रकार प्रतिपत्ति (ज्ञान) के हो जाने पर पुन: उसके लिए अन्य हेतुओं का व्यर्थ वचन नहीं कहा जाता है। इस प्रकार समाधान करने पर तो अन्यत्र भी यही समाधान समान रूप से लागू हो जाएगा। भावार्थ : मति आदि शब्दों के पहले-पीछे प्रयोग करने पर वार्तिककार ने दो-दो, तीन-तीन हेतु बता दिये हैं। इनसे अतिरिक्त भी हेतु कहे जा सकते हैं, जैसे कि विशेष रूप से संयम की वृद्धि होने पर ही मति आदि ज्ञानों की क्रम से पूर्णता होती है या उत्तरोत्तर ज्ञानों में बहिरंग कारणों की अपेक्षा से ह्रास भी होता है, किन्तु पदों के पूर्वापर प्रयोग करने पर जिस किसी शिष्य को जिस किसी भी उपाय से संतोषजनक प्रतिपत्ति हो जाय तो फिर इस अल्पसार कार्य के लिए शास्त्रार्थ की, या सभी हेतुओं के बताने की आवश्यकता नहीं समझी जाती है। ___मति आदि प्रत्येक में 'ज्ञान' का अन्वय कर लेना चाहिए, 'भुजि' के समान / जैसे देवदत्त, जिनदत्त और गुरुदत्त को भोजन कराओ। इसमें भोजन शब्द का सबके साथ प्रयोग किया गया है। - देवदत्त को भोजन कराओ, जिनदत्त को भोजन कराओ इत्यादि। इसी प्रकार यहाँ पर 'ज्ञान' शब्द प्रत्येक के साथ लगाना चाहिए। जैसे मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान इति। इस प्रकार पाँचों का समुदाय एक ज्ञान है, इस अनिष्ट अर्थ की निवृत्ति हो जाना सिद्ध है, ये पाँचों स्वतन्त्र पाँच ज्ञान हैं॥१६॥ _मति आदि पाँचों का मिला हुआ एक पिण्ड होकर एक ज्ञान है। इस प्रकार के अनिष्ट अर्थ हो जाने की शंका नहीं करना चाहिए, क्योंकि पाँचों में से प्रत्येक में ज्ञान शब्द का भोजन क्रिया कराने के समान चारों ओर से सम्बन्ध है। यह कहना युक्तियों से रहित नहीं है, क्योंकि सुवर्णत्व, मृत्तिकात्व आदि के समान सामान्य पदार्थ अपने विशेषों में व्याप्त हैं। जिस प्रकार सुवर्ण के विशेष परिणाम कड़े, कुंडल आदि में सामान्य रूप से सुवर्णपना प्रत्येक में सब ओर से संबद्ध है अर्थात् कड़े में सोना है, कुंडल में सोना है इत्यादि। उसी प्रकार मति ज्ञान है, श्रुत भी ज्ञान है, अवधि भी एक ज्ञान विशेष है एवं मनःपर्ययरूप ज्ञान है, केवल भी ज्ञान है। इन विशेष-विशेष ज्ञानों में भी सामान्य ज्ञानपने का सम्बन्ध है। इसमें कोई अन्तर नहीं है।