________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक*१४ स्वंतत्वाल्पाक्षरत्वाभ्यां विषयाल्पत्वतोपि च। मतेरादौ वचो युक्तं श्रुतात्तस्य तदुत्तरम् // 11 // मतिसंपूर्वत: साहचर्यात् मत्या कथंचन / प्रत्यक्षत्रितयस्यादाववधिः प्रतिपाद्यते // 12 // सर्वस्तोकविशुद्धित्वात्तुच्छत्वाच्चावधिध्वनेः। ततः परं पुनर्वाच्यं मनःपर्ययवेदनम् // 13 // विशुद्धतरतायोगात्तस्य सर्वावधेरपि। अंते केवलमाख्यातं प्रकर्षातिशयस्थितेः॥१४॥ तस्य निर्वृत्त्यवस्थायामपि सद्भावनिश्चयात् / तेनैव पञ्चमं ज्ञानं विधेयं मोक्षकारणं // 15 // मति, श्रुत आदि ज्ञानों के कथन करने का क्रम मति शब्द 'धि' संज्ञक है, अल्पाक्षर है, अल्प विषयक है, अत: उसको सर्वप्रथम ग्रहण किया गया है। अर्थात् मति यह शब्द स्वन्त (धि) संज्ञक है, अल्पाक्षर है, अवधि आदि की अपेक्षा मतिज्ञान का विषय अल्प है तथा चक्षु इन्द्रियादि के प्रति नियत विषयत्व है, अत: मतिज्ञान का सर्वप्रथम ग्रहण हुआ है। मतिज्ञान के अनन्तर श्रुतज्ञान कहा गया है; क्योंकि मतिज्ञानपूर्वक ही श्रुतज्ञान होता है इसलिए मतिज्ञान के बाद तथा उसके समीप श्रुतज्ञान को ग्रहण किया गया है॥११॥ किसी अपेक्षा मतिज्ञान के साथ श्रुतज्ञान का साहचर्य भी है। जहाँ मति है, वहाँ श्रुत है और जहाँ श्रुतज्ञान है, वहाँ मतिज्ञान है अत: आधारत्व और अविशेषत्व होने से दोनों में सहचरत्व है। सहचर सम्बन्ध से भी मति के उत्तरकाल में श्रुत का वचन युक्त है। तीनों प्रत्यक्षों में अवधिज्ञान सबसे कम विशुद्धि वाला है, तुच्छ है, अत: इसका सर्वप्रथम निर्देश है। (यद्यपि प्रत्यक्ष ज्ञान की अपेक्षा अवधिज्ञान अविशुद्ध है, परन्तु प्रत्यक्ष होने से और मतिश्रुतज्ञान की अपेक्षा विशुद्ध होने से अवधिज्ञान को मतिश्रुतज्ञान के बाद और प्रत्यक्षज्ञान के आदि में अवस्थान दिया गया है।) इससे, सर्वावधि से भी विशुद्धतर होने से अवधिज्ञान के बाद मन:पर्यय का निर्देश किया है। मनःपर्ययज्ञान के विशुद्धतर होने का कारण संयम है। मन:पर्ययज्ञान संयमीजनों के ही होता है अतः मनःपर्यय का ग्रहण अवधि के बाद किया गया है। सर्वावधि से भी विशुद्धतर होने से तथा अतीव उत्कृष्ट होन से सम्पूर्ण ज्ञानों के अन्त में केवलज्ञान को ग्रहण किया है, क्योंकि उससे उत्कृष्ट ज्ञान का अभाव है, और सर्वज्ञानों के परिच्छेदन में केवलज्ञान का ही सामर्थ्य है केवलज्ञान सर्वज्ञानों को जानता है, परन्तु केवलज्ञान को जानने का सामर्थ्य किसी ज्ञान में नहीं है, क्योंकि इससे अधिक प्रकर्षज्ञान का अभाव है। केवलज्ञान पूर्वक ही निर्वाण होता है, न कि क्षायोपशमिक मति आदि ज्ञानों के साथ / तथा उस केवलज्ञान का मोक्ष अवस्था में भी अनन्त काल तक विद्यमान रहना निश्चित है, अत: मोक्ष के कारणभूत पाँचवें ज्ञान का अनुष्ठान अन्त में करना योग्य है॥१२-१३-१४-१५॥ ___इस सूत्र में मति आदि शब्दों के पाठक्रम में शब्द सम्बन्धी और अर्थ सम्बन्धी न्याय के आश्रय अनुसार होने वाले उक्त हेतुओं से अन्य भी हेतु क्यों नहीं कहे? - इस प्रकार का प्रश्न उठाना श्रेष्ठ नहीं है। क्योंकि, उन अन्य हेतुओं के कहने पर भी उनसे अन्य हेतु क्यों नहीं कहे, इस प्रकार की शंका भी निवृत्त