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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 13 यन्मनःपर्ययावारपरिक्षयविशेषतः। मनःपर्ययणं येन,मनःपर्येति योपि वा // 6 // स मनःपर्ययो ज्ञेयो मनोत्रार्था मनोगताः। परेषां स्वमनो वापि तदालंबनमात्रकम् // 7 // क्षायोपशमिकज्ञानासहायं केवलं मतम् / यदर्थमर्थिनो मार्ग केवंते वा तदिष्यते // 8 // मत्यादीनां निरुक्त्यैव लक्षणं सूचितं पृथक् / तत्प्रकाशकसूत्राणामभावादुत्तरत्र हि // 9 // यथादिसूत्रे ज्ञानस्य चारित्रस्य च लक्षणम् / निरुक्तेर्व्यभिचारे हि लक्षणांतरसूचनम् // 10 // ___ न मत्यादीनां निरुक्तिस्तल्लक्षणं व्यभिचरति ज्ञानादिवत् न च तदव्यभिचारेपि तल्लक्षणप्रणयनं युक्तमतिप्रसंगात् सूत्रातिविस्तरप्रसक्तिरिति संक्षेपतः सकललक्षणप्रकाशनावहितमना: सूत्रकारो न निरुक्तिलभ्ये लक्षणे यत्नांतरमकरोत्॥ जो ज्ञान मन:पर्ययज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशमरूप विशेष परिक्षय से अपने या दूसरे के मन में स्थित पदार्थों को जान लेता है या मनोगत पदार्थों का जिसके द्वारा प्रत्यक्ष ज्ञान कर लिया जाता है वह मन:पर्यय है। __ अथवा जो ज्ञान मन में स्थित पदार्थों को चारों ओर से स्वतंत्रतापूर्वक प्रत्यक्ष जानता है उसको भी मन:पर्ययज्ञान समझना चाहिए। अन्य जीवों का मन व अपना मन भी उस मन:पर्ययज्ञान का केवल आलंबन मात्र है // 6-7 // मन:उपपद के साथ परि उपसर्ग पूर्वक “इण गतौ" धातु से कर्म, करण और कर्ता में 'अञ्' प्रत्यय करने से मनःपर्यय शब्द निष्पन्न हुआ है। .. केवल शब्द का अर्थ किसी की भी सहायता नहीं लेने वाला पदार्थ है। यह केवलज्ञान अन्य चार क्षायोपशमिक ज्ञानों की सहायता के बिना आवरण रहित केवल आत्मा से प्रकट होने वाला माना गया है। अथवा स्वात्मोपलब्धि के अभिलाषी जीव जिस सर्वज्ञता के लिए मार्ग को सेवते हैं, ग्रहण करते हैं, स्वीकार करते हैं वह केवलज्ञान इष्ट किया गया है॥८॥ - मति आदि ज्ञानों का पृथक्-पृथक् लक्षण शब्द की निरुक्ति करके ही सूचित कर दिया गया है। इसलिए ही तो उन मति आदि के लक्षण के प्रकाशक सूत्रों का उत्तर ग्रन्थ में अभाव है। जैसे कि आदि के सूत्र में ज्ञान और चारित्र का लक्षण शब्द निरुक्ति से ही सूचित कर दिया गया है। यदि प्रकृति, प्रत्यय द्वारा शब्द की निरुक्ति करने से वाच्य अर्थ में व्यभिचार दोष आता है तब तो लक्षणों को सूचन करने वाले अन्य सूत्रों को बनाना आवश्यक है, जैसे कि सम्यग्दर्शन का लक्षणसूत्र पृथक् बनाया गया है; अन्यथा नहीं॥ 9-10 // ___मति, श्रुत आदि शब्दों की निरुक्ति अपने-अपने लक्षणों का व्यभिचार नहीं करती है, जैसे कि ज्ञान, चारित्र, प्रमाण आदि का शब्दार्थ स्वकीय अपने लक्षण का व्यभिचार नहीं करता है अत: उनमें व्यभिचार दोष न होने से उनके लक्षणों की पुनः सूत्रों द्वारा रचना करना उपयुक्त नहीं है, क्योंकि उससे अतिप्रसंग दोष आता है। यानी प्रसिद्ध शब्द और लक्षण घटित सरल शब्दों के भी पुनः लक्षण सूत्र बनाना अनिवार्य होगा, और ऐसा होने से सूत्रग्रन्थ के अधिक विस्तृत हो जाने का प्रसंग आवेगा। अत: संक्षेप से सम्पूर्ण पदार्थों के लक्षण के प्रकाशन में जिनका मन संलग्न है, ऐसे सूत्रकार निरुक्ति से प्राप्त लक्षण में पुनः अन्यार्थ के लिए दूसरा प्रयत्न नहीं करते हैं।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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