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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 12 ज्ञानं संलक्षितं तावदादिसूत्रे निरुक्तितः। मत्यादीन्यत्र तद्भेदाल्लक्षणीयानि तत्त्वतः॥२॥ न हि सम्यग्ज्ञानमत्र लक्षणीयं तस्यादिसूत्रे ज्ञानशब्दनिरुक्त्यैवाव्यभिचारिण्या लक्षितत्वात् तद्भेदमासृत्य मत्यादीनि तु लक्ष्यंते तन्निरुक्तिसामर्थ्यादिति बुध्यामहे। कथं? मत्यावरणविच्छेदविशेषान्मन्यते यया। मननं मन्यते यावत्स्वार्थे मतिरसौ मता // 3 // श्रुतावरणविश्लेषविशेषाच्छ्रवणं श्रुतम् / शृणोति स्वार्थमिति वा श्रूयतेस्मेति वागमः // 4 // अवध्यावृतिविध्वंसविशेषादवधीयते। येन स्वार्थोवधानं वा सोवधिनियत: स्थितिः॥५॥ ___ आदि के “सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" इस सूत्र में ज्ञान तो ज्ञान शब्द की निरुक्ति से लक्षणयुक्त कर दिया गया है। वहाँ से उसका अवधारण कर लेना / यहाँ उस ज्ञान के प्रकार होने से मति,श्रुत आदि का वस्तुत: लक्षण करना चाहिए // 2 // इस अवसर पर सम्यग्ज्ञान का लक्षण करना आवश्यक नहीं है, क्योंकि उसका आदिसूत्र में ही 'ज्ञान' शब्द की व्यभिचार दोष रहित निरुक्ति करके लक्षण किया जा चुका है। उस ज्ञान के भेदों का आश्रयकर मति, श्रुत आदि ज्ञान तो उनकी शब्द निरुक्ति की सामर्थ्य से लक्षणयुक्त हो जाते हैं, इस प्रकार हम जानते हैं। मति आदि का शब्द निरुक्ति से ही लक्षण कैसे निकलता है ? ऐसी जिज्ञासा होने पर कहते मति ज्ञान को आवरण करने वाले कर्म के क्षयोपशम रूप विशेषविच्छेद हो जाने से जिसके द्वारा अवबोध किया जाता है वह मति है। “मन-ज्ञाने" इस दिवादिगण की धातु से करण में क्तिन् प्रत्यय करके मति शब्द सिद्ध किया गया है) अथवा आत्मा का स्व और अर्थ की ज्ञप्ति का साधकतम रूप परिणाम विशेष मतिज्ञान है अथवा मननं मतिः। (इस प्रकार मन धातु से भाव में क्ति प्रत्यय कर मति शब्द बनाया गया है) // 3 // इस मति शब्द की उत्पत्ति तीन प्रकार से है “मन्यते मननं मात्रं वा मति: अर्थात् आत्मा जानता है। यह कर्तृ वाच्य है। जिसके द्वारा जानता है यह कर्मवाच्य है और मनन करना ही जिसका कार्य है यह पर्याय और पर्यायी में भेद अभेद की विवक्षा से कथन है। श्रुतज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से जो स्वार्थ को सुनता है, वा सुना जाता है, अथवा सुनना मात्र जिसका स्वभाव है वह श्रुत कहलाता है। अथवा आगम को श्रुत कहते हैं॥ 4 // अर्थात् मति और श्रुत कर्तृ-वाच्य, कर्म-वाच्य और भाव-वाच्य से तीन प्रकार हैं। मन धातु से 'क्ति' प्रत्यय और 'श्रु' धातु से 'क्त' प्रत्यय से मति और श्रुत शब्द की निष्पत्ति हुई है। कर्तृ, कर्म और भाव इन तीन निरुक्तियों में पर्याय और पर्यायी में भेद और अभेद विवक्षा में तीनों परिणतियाँ घटित हो जाती हैं। अवधिज्ञान को रोकने वाले अवधिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशमरूप विध्वंसविशेष से स्व और अर्थ का जिसके द्वारा प्रत्यक्षज्ञान किया जाता है, वह अवधिज्ञान है। अथवा मर्यादा को लिये प्रत्यक्षज्ञान करना वह भी अवधिज्ञान है।।५॥ अर्थात् अव उपसर्गपूर्वक 'डुधाञ्' धातु से भाव में क्ति प्रत्यय करके अवधि शब्द निष्पन्न किया गया है।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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