________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 11 मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलानि ज्ञानम् // 9 // किमर्थमिदं सूत्रमाहेत्युच्यते - अथ स्वभेदनिष्ठस्य ज्ञानस्येह प्रसिद्धये। प्राह प्रवादिमिथ्याभिनिवेशविनिवृत्तये // 1 // न हि ज्ञानमन्वयमेवेति मिथ्याभिनिवेशः कस्यचिन्निवर्तयितुं शक्यो विना मत्यादिभेदनिष्ठसम्यग्ज्ञाननिर्णयात् तदन्यमिथ्याभिनिवेशवत्। न चैतस्मात्सूत्रादृते तन्निर्णय इति सूक्तमिदं संपश्यामः॥ किं पुनरिह लक्षणीयमित्युच्यते - सम्यग्दर्शन के निरूपण के अनन्तर सम्यग्ज्ञान का प्रकरण है। अतः प्रथम ही सम्यग्ज्ञान के भेदों का प्रतिपादक सूत्र कहा जाता है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये पाँच समीचीन ज्ञान हैं॥९॥ इस सूत्र को किस प्रयोजन के लिए कहा है? ऐसी जिज्ञासा होने पर श्री विद्यानन्द स्वामी कहते सम्यग्दर्शन के प्रकरण के अनन्तर अपने भेदों में स्थित ज्ञान की प्रसिद्धि के लिए और अनेक प्रवादियों के झूठे अभिमान से उत्पन्न कदाग्रह की निवृत्ति करने के लिए यहाँ इस सूत्र का निरूपण किया गया है॥१॥ .. मति, श्रुत आदि भेद वाले सम्यग्ज्ञान का निर्णय किये बिना किसी वादी का ज्ञान अन्वयरूप ही है ऐसे झूठे आभिमानिक आग्रह का किसी भी प्रकार से निराकरण करना संभव नहीं है, जैसे कि उससे अन्य दूसरे चार्वाक, बौद्ध आदि के मिथ्या श्रद्वान नहीं हटाये जा सकते हैं, तथा इस सूत्र के बिना मति आदि भेद * वाले उस सम्यग्ज्ञान का निर्णय भी नहीं होता है अत: यह सूत्र कहा है, ऐसा हम भले प्रकार समझ रहे हैं। . भावार्थ : अनेक मीमांसक आदि प्रवादियों के यहाँ ज्ञान के विषय में भिन्न-भिन्न प्रकार के मन्तव्य हैं। कोई ज्ञान को अन्वय स्वरूप ही मानते हैं, बौद्ध प्रमाणज्ञान के प्रत्यक्ष और परोक्ष दो भेद मानते हैं। श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान उनको इष्ट नहीं है। चार्वाक केवल इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष को ही मानते हैं। वैशेषिक प्रत्यक्ष और अनुमान दो प्रमाण मानते हुए ज्ञान को स्वसंवेदी नहीं मानते हैं। सांख्यमती प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम प्रमाण इन तीन ही प्रकार के ज्ञान को मानते हैं। नैयायिक प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शाब्द इन चार प्रमाणों को मानकर दूसरे ज्ञान से ज्ञान का प्रत्यक्ष होना अभीष्ट करते हैं। अर्थापत्ति और अभाव से सहित पाँच, छह प्रमाणों को मानने वाले प्रभाकर जैमिनीय मत के अनुयायी सर्वज्ञप्रत्यक्ष का निषेध करते हैं। इन सब मिथ्याश्रद्धानों की निवृत्ति के लिए भेदयुक्त ज्ञान का सूत्र के द्वारा कथन करना अत्यावश्क है। फिर इस प्रकरण में किसका लक्षण करने योग्य है ? ऐसी आकांक्षा होने पर कहते हैं कि