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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 229 लिंगे प्रत्यक्षतः सिद्धे साध्यधर्मिणि वा क्वचित् / लिंगिज्ञानं प्रवर्तेत नान्यथातिप्रसंगत // 249 // गौणश्चेद्व्यपदेशोऽयं कारणस्य फलेस्तु नः। प्रधानभावतस्तस्य तत्राभिप्रायवर्तनात् // 250 // स्वभावविरुद्धोपलब्धिं निश्चित्यानुपलब्धेरांतरभूतां व्याप्यविरुद्धोपलब्धिमुदाहरति;व्यापकार्थविरुद्धोपलब्धिरत्र निवेदिता। यथा न सन्निकर्षादिः प्रमाणं परसंमतम् // 251 // अज्ञानत्वादतिव्याप्र्ज्ञानत्वेन मितेरिह। व्यापकव्यापकद्विष्टोपलब्धियमिष्यते // 252 // स्यात्साधकतमत्वेन स्वार्थज्ञप्तौ प्रमाणता / व्याप्ता या च तया व्याप्तं ज्ञानात्मत्वेन साध्यते // 253 // यदा प्रमाणत्वं ज्ञानत्वेन व्याप्तं साध्यतेऽज्ञानस्य प्रमाणत्वेतिप्रसंगात् तदा तद्विरुद्धस्याज्ञानत्वस्योपलब्धिप्पकविरुद्धोपलब्धिर्बोध्या न सन्निकर्षादिरचेतनः प्रमाणमज्ञानत्वादिति। यदा तु प्रमाणत्वं साधकतमत्वेन व्याप्तं तदपि ज्ञानात्मकत्वेन व्याप्तं साध्यते साधकतमस्य प्रमाणतानुपपत्तेरज्ञानात्मकस्य च स्वार्थप्रमितौ है। अन्यथा लिंगी के ज्ञानों की प्रवृत्ति नहीं हो सकती है क्योंकि ऐसा मानने पर अतिप्रसंग दोष आता है। अर्थात् दृष्टान्त में व्याप्ति का ग्रहण किए बिना ही चाहे जिस अतीन्द्रिय हेतु से चाहे जिस साध्य का अनुमान होने का प्रसंग आएगा। यदि बौद्ध इस प्रकार कहे कि कारणत्व का व्यवहार करना गौण है, तब तो हम जैन भी कह सकते हैं कि हमारे यहाँ फलरूप कार्य में स्वभावत्व का व्यपदेश गौणरूप से होता है। उस स्वभाववान के साधने में अथवा स्वभावविरुद्ध हेतु के विरोधी भाव के साधने में प्रधानरूप से अभिप्राय वर्त रहा है॥२४८-२४९-२५०॥ ..इस प्रकार स्वभाव विरुद्ध उपलब्धि का निश्चय कर अनुपलब्धि से अर्थान्तरभूत (भिन्न स्वरूप) हो रही व्याप्यविरुद्ध उपलब्धि का उदाहरण देते हैं। - यहाँ व्यापक अर्थ से विरुद्ध उपलब्धि का निवेदन कर दिया गया है। वैशेषिक, सांख्य आदि .परवादियों के द्वारा माने गये सन्निकर्ष, इन्द्रियवृत्ति, कारकसाकल्य आदि प्रमाण नहीं हैं-अज्ञानरूप होने से। यहाँ ज्ञानत्व के द्वारा प्रमाणता की व्याप्ति है, अत: अज्ञान को प्रमाण मानने पर अतिव्याप्ति दोष आता है अर्थात् घट आदि भी प्रमाण बन जाते हैं, जो इष्ट नहीं है। अत: इस हेतु में प्रमाणरूप साध्य के साथ व्यापक ज्ञानत्व से विरुद्ध अज्ञानपन की उपलब्धि व्यापक विरुद्ध उपलब्धि है। अथवा यह अज्ञानत्व हेतु व्यापकविरुद्ध उपलब्धि इष्ट की गई है। उस ज्ञानपने के विरुद्ध अज्ञानत्व की उपलब्धि हो रही है। स्व और अर्थ की ज्ञप्ति करने में प्रकृष्ट उपकारकत्व के द्वारा जो प्रमाणता व्याप्त है, वही प्रमाणता ज्ञानरूपपने से व्याप्त है और व्यापकज्ञानपने के निषेधस्वरूप का अज्ञानपन करके प्रमाणत्व का अभाव सिद्ध किया जाता है॥२५१२५२-२५३॥ जिस समय प्रमाणपना ज्ञानपने से व्याप्त सिद्ध किया जाता है तब अज्ञान को प्रमाणपना मानने से प्रदीप, घट आदि में अतिप्रसंग दोष आता है अतः साध्य में व्यापक ज्ञानपन से विरुद्ध अज्ञानपन की उपलब्धि रूप हेतु व्यापकविरुद्ध उपलब्धि है ऐसा समझना चाहिए। अचेतन सन्निकर्ष आदिक प्रमाण नहीं हैं-अज्ञानपना होने से / इस अनुमान में व्यापक विरुद्ध-उपलब्धि हेतु है किन्तु प्रमाण प्रमिति के साधकतम
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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