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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 230 साधकतमत्वायोगात् / छिदिक्रियादावेवाज्ञानात्मनः परश्वादेः साधकतमोपपत्तेः। तदा व्यापकव्यापकविरुद्धोपलब्धिः सैवोदाहर्तव्या॥ व्यापकद्विष्ठकार्योपलब्धिः कार्योपलब्धिगा। श्रुतिप्राधान्यतः सिद्धा पारंपर्याविरुद्धवत् // 254 // यथा नात्मा विभुः काये तत्सुखाद्युपलब्धितः। विभुत्वं सर्वभूतार्थसंबंधित्वेन वस्तुतः // 255 // व्याप्तं तेन विरोधीदं कायसंबंधमात्रकं / काय एव सुखादीनां तत्कार्याणां विबोधनम् // 256 // ननु प्रदेशवृत्तीनां तेषां संवादनं कथं / शरीरमात्रसंबंधमात्मनो भावयेत्सदा // 257 // यतो निःशेषमूर्तार्थसम्बन्धविनिवर्तनात्। विभुत्वाभावसिद्धिः स्यादिति केचित्प्रचक्षते // 258 // तदयुक्तं मनीषायाः साकल्येनात्मनः स्थितेः। तच्छून्यस्यात्मताहानेस्तादात्म्यस्य प्रसाधनात् // 259 // से व्याप्त है और ज्ञानस्वरूप से प्रमिति का साधकतमपना व्याप्त सिद्ध किया जाता है, क्योंकि प्रमिति के असाधकतम प्रमाणत्व नहीं हो सकता है तथा अज्ञानस्वरूप पदार्थोंको की प्रमिति में साधकतमपना अयुक्त भी है। छेदन, तक्षण, प्रकाश आदि क्रियाओं में अज्ञानस्वरूप फर्सा, वसूला, प्रदीप आदि का साधकतमपना युक्त है, तब तो वही अनुमान व्यापक-व्यापक-विरुद्ध-उपलब्धि का उदाहरण समझना चाहिए। परम्परा विरुद्ध हेतु के समान कार्योपलब्धि को प्राप्त हो रही व्यापक विरुद्ध कार्य उपलब्धि हेतु भी आगम प्रमाण की प्रधानता से सिद्ध है-जैसे आत्मा व्यापक नहीं है, क्योंकि शरीर में ही उसके सुख, दुःख आदि गुणों की उपलब्धि होती है। वैशेषिकों ने आत्मा, काल, आकाश, दिक्वस्तुओं का विभुपना सम्पूर्ण पृथ्वी, जल, तेज, वायु और मन-इन पाँच मूर्त अर्थों के सम्बन्ध से व्याप्त होना माना है। उस व्यापकपन से यह केवल कार्य से ही सम्बन्धी होनापन विरुद्ध है। उस आत्मा के कार्य सुख आदि का शरीर ही में विशद बोध होता है अतः ‘सर्वमूर्तद्रव्यसंयोगित्वं विभुत्वम्' ऐसे निषेध करने योग्य विभुपन का व्यापक सम्पूर्ण मूर्त द्रव्यों से सम्बन्धीपना है और सर्वमूर्त सम्बन्धीपन से विरुद्ध केवल शरीर में ही सम्बन्धीपना है। उस कार्य सम्बन्धीपन का कार्य शरीर में ही सुख, दुःख, प्रयत्न आदि का उपलम्भ होना है, अत: यह व्यापकविरुद्धकार्य उपलब्धि हेतु है॥२५४-२५५-२५६॥ शंका : एक प्रदेश में स्थित सुखादि का कथन कैसे होता है ? शरीर परिमाण आत्मा में भी सम्पूर्ण अंशों में पीड़ा, सुख आदि का सदा अनुभव होता है तथा एक-एक प्रदेश में पीड़ा का अनुभव अनेक बार होता रहता है। ___ सभी अंशों में सर्वगत कार्यों का उपलम्भ होना तो कठिन है। व्यापकद्रव्य के प्रदेशों में उन सुख आदि का सम्वादीज्ञान होता है। वह सदा आत्मा के केवल शरीर में ही सम्बन्धीपन को कैसे समझा सकता है? जिससे कि सम्पूर्ण पाँचों मूर्त अर्थों क साथ सम्बन्ध होना रूप सर्वगतपन की विशेषतया निवृत्ति हो जाने से आत्मा में व्यापकपन का अभाव सिद्ध हो जाए। अर्थात् आत्मा के कतिपय छोटे-छोटे अंशों में अनुभव में आने वाले दुःख, सुख आदि आत्मा के व्यापकपन का बिगाड़ नहीं कर सकते हैं। इस प्रकार कोई वैशेषिक कहता है।
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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