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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 225 वैकल्यप्रतिबंधाभ्यामनासाद्य स्वभावताम् / विशिष्टतात्र विज्ञातुं शक्या छायादिभेदतः // 222 // तद्विलोपेऽखिलख्यातव्यवहारविलोपनम् / तृप्त्यादिकार्यसिद्ध्यर्थमाहारादिप्रवृत्तितः॥२२३॥ हेतुना यः समग्रेण कार्योत्पादोनुमीयते। अर्थांतरानपेक्षत्वात्स स्वभाव इतीरणे // 224 // कार्योत्पादनयोग्यत्वे कार्ये वा शक्तकारणम् / स्वभावहेतुरित्यायैर्विचार्य प्रथमे मतः // 225 / / स्वकार्ये भिन्नरूपैकस्वभावं कारणं वदेत् / कार्यस्यापि स्वभावत्वप्रसंगादविशेषतः // 226 // समग्रकारणं कार्यस्वभावो न तु तस्य तत्। कोऽन्यो ब्रूयादिति ध्वस्तप्रज्ञानैरात्मवादिनः // 227 // यत्स्वकार्याविनाभावि कारणं कार्यमेव तत् / कार्यं तु कारणं भावीत्येतदुन्मत्तभाषितम् // 228 // यद्यपि अन्य कारणों की विकलता (रहितता) और कारणों के सामर्थ्य के प्रतिबन्ध होने से स्वभाव को नहीं प्राप्त होने वाला हेतु व्यभिचारी हो सकता है। ___ परन्तु अन्य कारणों की परिपूर्णता और कार्य करने में हेतु की सामर्थ्य का प्रतिबंध न होने से यहाँ कारण हेतु की विशिष्टता को विशेषरूप से जाना जा सकता है जैसे छाया उष्णता, आदि के भेद से छत्र, अग्नि आदि का कारणपना सुव्यवस्थित होता है। यदि अन्य कार्यों की पूर्णता और हेतु सामर्थ्य की अक्षुण्णता रहते हुए भी उस कारण से कार्य के ज्ञान होने का विलोप हो जाना मानोगे तो जगत्प्रसिद्ध सम्पूर्ण व्यवहारों का विलोप हो जायेगा, परन्तु तृप्ति, प्यास बुझना आदि कार्यों की सिद्धि के लिए आहार, जलपान आदि . में प्रवृत्ति होना रूप व्यवहार देखा जाता है अतः सभी कारणों को तो नहीं, किन्तु कार्य को नियम से करने वाले कारणों को ज्ञापक हेतु मानना न्याय्य है॥२२२-२२३॥ . बौद्ध : पूर्ण सामग्री से युक्त हेतु के द्वारा जो कार्य के उत्पाद का अनुमान किया जाता है, वह अन्य अर्थों की अपेक्षा नहीं होने से स्वभाव हेतु है। अथवा कार्य के उत्पाद कराने की योग्यता होने पर कार्य करने में समर्थ कारण स्वभाव हेतु है। ऐसा कहने पर आचार्य कहते हैं कि आर्य (विद्वान) को विचार कर प्रथम स्वभाव हेतु में कारण हेतु मानना नीतियुक्त है, किन्तु बौद्ध अपने कार्य करने में भिन्नस्वरूप हो रहे एक कारण को यदि स्वभाव हेतु कहता है तब तो कार्य हेतु को भी स्वभाव हेतुपन का प्रसंग आता है, क्योंकि इन दोनों में कोई विशेषता नहीं है। अर्थात् स्वभाववान् कारण का स्वभाव कार्य हेतु हो सकता है। समग्र कारण तो कार्य का स्वभाव है, किन्तु उस समग्र कारण का स्वभाव वह कार्य नहीं है। नष्ट हो गया है ज्ञान जिनका, ऐसे अनात्मवादी को छोड़कर दूसरा कौन ऐसा कह सकता है? अर्थात् कोई नहीं कह सकता। अतः स्वभाव हेतु से अतिरिक्त जैसे कार्य हेतु माना जाता है, उसी प्रकार कारण हेतु भी पृथक् मानना चाहिए // 224225-226-227 // ___ जो कारण अपने कार्य के साथ अविनाभाव रखता है, वह तो कार्य ही है। भविष्य में होने वाले कारण भी कार्य के जनक माने गये हैं। इस प्रकार बौद्धों का कहना उन्मत्तों का भाषण है। अर्थात्-कार्य में व्यापार करने वाले कारण माने जाते हैं। भविष्य में होने वाले कारण कार्य में कैसे सहायता कर सकते हैं? कथमपि नहीं // 228 //
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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