SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 229
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 224 प्रतिषेधश्च विषयीक्रियते तथानुपलंभेनापि / यथानुपलंभेन प्रतिषेधः प्राधान्यात् , विधिश्च गुणभावात्तथोपलंभेनापीति यथायोग्यमुदाहरिष्यते। ततः संक्षेपादुपलंभानुपलंभावेव हेतू प्रतिपत्तव्यौ॥ तत्तत्रैवोपलंभः स्यात्सिद्धः कार्यादिभेदतः / कार्योपलब्धिरग्न्यादौ धूमादिः सुविधानतः॥२१७॥ कारणस्योपलब्धिः स्याद्विशिष्टजलदोन्नतेः / वृष्टौ विशिष्टता तस्याश्चित्या छायाविशेषतः॥२१८॥ कारणानुपलंभेपि यथा कार्ये विशिष्टता। बोध्याभ्यासात्तथा कार्यानुपलंभेपि कारणे // 219 // समर्थं कारणं तेन नात्यक्षणगतं मतम् / तद्बोधे येन वैयर्थ्यमनुमानस्य गद्यते // 220 // न चानुकूलतामात्रं कारणस्य विशिष्टता। येनास्य प्रतिबंधादिसंभवाद्व्यभिचारिता // 221 // भावार्थ : बौद्धों के समान प्रमेयभेद से प्रमाण के भेद होने को हम नही मानते हैं। प्रमाण कितने ही हों किन्तु सामान्य विशेष आत्मक वस्तुनाम का प्रमेय एक ही है। ... जिस प्रकार उपलम्भ हेतु के द्वारा प्रधानता से विधि को और गौणरूप से निषेध को विषय किया जाता है, उसी प्रकार अनुपलम्भ हेतु के द्वारा भी प्रधानता से विधि और गौणरूप से निषेध जाना जाता है तथा जिस प्रकार अनुपलम्भ के द्वारा प्रधानता से निषेध और गौणरूप से विधि का जानना अभीष्ट है, उसी प्रकार उपलम्भ के द्वारा भी प्रधानता से निषेध और गौणरूप से विधि का ज्ञापन करना इष्ट है। इन सब हेतुभेदों के यथायोग्य उदाहरण भविष्य में दिये जाएंगे। अत: संक्षेप में उपलम्भ और अनुपलम्भ ये ही दो हेतु समझ लेने चाहिए। उन हेतुभेदों में उपलम्भ नाम का हेतु कार्य, व्याप्य, कारण, पूर्वचर, उत्तरचर, सहचर इन भेदों से छह प्रकार का सिद्ध है। जैनसिद्धान्तानुसार हेतुओं की भेद गणना करने से अग्नि आदि कारणों को साध्य करने में धूम आदि हेतु कार्य उपलब्धिरूप हैं॥२१७॥ विशिष्ट मेघों से भविष्य में होने वाली वर्षा की विशिष्टता जान ली जाती है तथा छायाविशेष से छत्र की ज्ञप्ति हो जाती है। इस प्रकार कारणोपलब्धि हेतु के उदाहरण जानने चाहिए।॥२१८॥ __कारण के प्रत्यक्ष न होने पर भी जिस प्रकार कार्य में होने वाली विशिष्टता अभ्यास से जान ली जाती है अर्थात् प्रत्यक्ष कार्य से परोक्षकारण का अनुमान हो जाता है, उसी प्रकार कार्य का अनुपलम्भ होने पर भी कारण में विशिष्टता जान ली जाती है॥२१९॥ भावार्थ : प्रत्यक्ष हो रहे कारण हेतु से परोक्ष कार्य का अनुमान कर लिया जाता है। कार्य के करने में समर्थ कारण को हेतु कहा है, अतः अन्त्यक्षण को प्राप्त कारण हेतु नहीं माना गया है जिससे कि उत्तरक्षण में उस कार्य के प्रत्यक्ष हो जाने पर अनुमान प्रमाण उठाने का व्यर्थपना कहा जाये॥२२०॥ ___तथा, कारण को ज्ञापक हेतु बनाने के प्रकरण में स्वरूपयोग्यतारूप केवल अनुकूलता को भी हम कारण की विशिष्टता नहीं मानते हैं, जिससे कि इस कारण का प्रतिबंध, पृथक्करण आदि सम्भव होने से कारण हेतु का व्यभिचार दोष से युक्त हो सकता है अर्थात् कार्य कराने में उपयोगी और कारणपने की सामर्थ्य के प्रतिबन्ध से रहित कारण को कार्य का ज्ञापक हेतु माना जाता है। अन्य सभी कारणों को नहीं // 221 //
SR No.004286
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2010
Total Pages438
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy