________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक * 223 नाप्येको विधिसाधनो यतो दोषः स्यादिति कश्चित् , सोपि न प्रातीतिकाभिधायी कार्यस्वभावानुपलब्धिषु प्रतीयमानासु विपर्ययकल्पनात्। तथाहि—सर्वत्र कार्यस्वभावहेतोविरुद्धव्याप्तोपलब्धिरूपतापत्तेरनुपलब्धिरेवैका स्यात् अनुपलब्धेर्वा कार्यस्वभावहेतुतापत्तेस्तावेव स्यातां तत्र प्रतीत्यनुसरणे यथोपयोक्त्रभिप्रायं कार्यस्वभावावपि प्राधान्येन विधिप्रतिषेधसाधनावुपेयौ। विधिसाधनश्चानुपलंभ इति न विषयभेदाल्लिंगसंख्यानियम: सिद्ध्येत्॥ यस्मादनुपलंभोत्रानुपलभ्यत्वमिष्यते। तथोपलभ्यमानत्वमुपलभः स्वरूपतः॥२१५॥ भिन्नावेतौ न तु स्वार्थाभेदादिति नियम्यते। भावाभावात्मकैकार्थगोचरत्वाविशेषतः॥२१६॥ उपलभ्यत्वानुपलभ्यत्वस्वरूपभेदादेव भिन्नादुपलम्भानुपलभौ मंतव्यौ न पुनः स्वविषयभेदादिति नियम्यते विधिप्रतिषेधात्मकैकवस्तुविषयत्वस्य तयोर्विशेषाभावात् / यथैवेत्युपलभेन प्राधान्याद्विधिगुणभावात् उत्तर : वह बौद्ध भी प्रमाण द्वारा विश्वास करने योग्य कथन करने वाला नहीं है कयोंकि उसका कथन सम्पूर्ण लौकिक परीक्षक विद्वानों द्वारा प्रतीत किए जा रहे कार्य, स्वभाव और अनुपलब्धि हेतुओं में विपरीत कल्पना करने वाला है। जैन उन बौद्धों की विपरीत कल्पना का ही निदर्शन कराते हैं कि इस प्रकार तो सभी स्थानों पर कार्य और स्वभाव हेतुओं को विरुद्ध से व्याप्त की उपलब्धिस्वरूप प्राप्त हो जाएगा अत: एक अनुपलब्धि ही हेतु का भेद मानना चाहिए। अथवा अनुपलब्धि हेतु को भी कार्य हेतुत्व या स्वभावहेतुत्व की आपत्ति हो जायेगी अतः अनुपलब्धि का दो में अन्तर्भाव हो जाने से कार्य और स्वभाव ये दो ही हेतु रह जाते हैं। यदि वहाँ प्रतीति का अनुसरण करोगे, तब तो उपयोग करने वाले अभिप्राय का अतिक्रमण नहीं कर कार्य और स्वभाव हेतुओं को प्रधानता से विधि और निषेध को भी साधने वाला मान लेना चाहिए। तथा अनुपलम्भ हेतु को भी प्रधानता से विधि को साधने वाला मान लेना चाहिए अतः विधि और निषेधरूप * विषयों के भेद से हेतु भेदों की संख्या का नियम नहीं सिद्ध हो सकता है। (जैन सिद्धान्त में तो उपलब्धि, विधि और निषेधात्मक है और अनुपलब्धि भी विधि निषेधात्मक है)। जिस प्रकार यहाँ अनुपलभमान हेतु अनुपलम्भ कहलाता है, उसी प्रकार उपलम्भमान हेतु उपलभ कहलाता है अत: वस्तु के धर्मों की अपेक्षा से ये दोनों हेतु भिन्न-भिन्न हैं। किन्तु अपने धर्मी अर्थ के अभेद होने से दोनों अभिन्न ही हैं, भिन्न नहीं, ऐसा नियम किया जाता है क्योंकि, भाव और अभावस्वरूप एक अर्थ को विषय करने रूप धर्म दोनों हेतुओं में समान है। इसमें कोई विशेषता नहीं है।॥२१५-२१६॥ - एक वस्तु के उपलभ्यपन और अनुपलभ्यपन नामक स्वरूपभूत धर्मों के भेद से ही उपलम्भ और अनुपलम्भों को भिन्न मान सकते हैं, किन्तु फिर भी अपने धर्मीरूप विषय के भेद से ये हेतु भिन्न नहीं हैंइस प्रकार नियम किया जाता है, क्योंकि विधि और प्रतिषेधस्वरूप एक वस्तु को विषय करना उन दोनों में अविशेषता से विद्यमान है।